भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में वो नाम, जिसे अंग्रेजी शासकों ने सबसे कड़ा दंड दिया, पढ़े संघर्षगाथा…
सावरकर माने तेज,
सावरकर माने त्याग,
सावरकर माने तप,
सावरकर माने तत्व,
सावरकर माने तर्क,
सावरकर माने तारुण्य,
सावरकर माने तीर,
सावरकर माने तलवार।
-अटल बिहारी वाजपेयी जी की कविता ने उस महामानव से साक्षात्कार करा दिया जिसने हिन्दुओं का आत्मसम्मान जगा दिया और देश की स्वतन्त्रता के लिए बलिदानियों की सेना खड़ी कर दी…आज हम स्मरण कर रहे हैं स्वातन्त्र्यवीर विनायक दामोदर सावरकर को। भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में वो नाम, जिसे अंग्रेजी शासन ने सबसे कड़ा दण्ड दिया। काले पानी का दण्ड, वो भी एक नहीं दो बार, अर्थात् 50 वर्षों के लिए।
पूरे इतिहास में इतना लम्बा दण्ड किसी भी स्वतन्त्रता सेनानी या क्रांतिकारी को नहीं दी गई। आज इनकी जयंती है। इन्हें वीर सावरकर के नाम से जाना जाता है। वीर सावरकर एक महान विचारक, साहित्यकार, इतिहासकार और समाजसुधारक थे। सावरकर ने अखंड भारत का सपना देखा। वे छुआ-छूत और जाति भेद के घोर विरोधी थे। उनकी पुस्तक ′भारत का प्रथम स्वतंत्रता समर 1857′ ने अंग्रेजों की जड़े हिला दी थी। अंग्रेजों के अंदर फिर से 1857 जैसी स्वन्त्रता संग्राम का डर समा गया। वे पहले भारतीय थे जिन्होंने 1905 में स्वदेशी का नारा दे कर विदेशी कपड़ो की होली जलाई थी।
सावकर ऐसे भारतीय थे जिन्होंने ब्रिटिश साम्राज्य की राजधानी लंदन जा कर क्रांतिकारी आंदोलन को संगठित किया।लंदन में सावरकर भारतीय छात्रों में राष्ट्रधर्म की अलख जगाने लगे। वहां वे क्रांतिकारियों की टोली बनाने लगे। सावरकर युवाओं के प्रेरणास्रोत बन गए। लंदन में ही उन्होंने 1857 के संग्राम की स्वर्ण जयंती मनाई। लंदन में ऐसा पहली बार था जब भारतीय छात्र जो लंदन यूनिवर्सिटी में पढ़ते थे सड़कों पर वंदे मातरम का बिल्ला लगा कर निकले।भारतीय छात्रों में नई जागृति उत्पन्न हुई। वे भारतीय होने में गर्व महसूस करने लगे।
जर्मनी में 1907 के राष्ट्रीय सोशलिस्ट कांग्रेस के अधिवेसन में मैडम कामा ने भारत का पहला झंडा फहराया। वीर सावरकर ने ही भारत का वो पहला झंडा बनाया था। लंदन में उनकी पुस्तक प्रथम स्वाधीनता समर 1857 छपने के लिए तैयार थी लेकिन ब्रिटिश शासन ने उनकी पुस्तक छपने से पहले ही प्रतिबंध कर दी। इस पुस्तक का पहला प्रकाशन गुप्त रूप से 1909 में हालैंड में हुआ। दूसरा लाला हरदयाल ने अमेरिका में, तीसरा संस्करण भगत सिंह और चौथा सुभाषचंद्र बोस ने छपवाया। इन पुस्तकों पर किसी लेखक का नाम नहीं होता था।
इस पुस्तक को छपने नहीं देने का एकमात्र कारण था, अंग्रेजों के अंदर ये डर हो गया था कि इस किताब में 1857 के क्रांति को ऐसे दर्शाया गया था जिसे पढ़ कर फिर से वैसी क्रांति आरम्भ हो सकती थी। यह पुस्तक क्रांतिकारियों के लिए गीता के समान थी।वीर सावरकर ने इंग्लैंड के राजा के प्रति निष्ठा की शपथ लेने से साफ मना कर दिया जिसके कारण उन्हें वकालत करने से रोक दिया गया।13 मार्च, 1910 को ब्रिटिश सरकार ने सावरकर को ब्रिटिश सरकार विरोधी गतिविधियों के आरोप में बन्दी बना लिया। समुन्द्र के रास्ते उन्हें भारत लाया जा रहा था।
वीर सावरकर का साहस था कि वो समुंद्र में कूद कर भाग निकले। बाद में फ्रांस के समुन्द्र तट पर उन्हें फिर पकड़ लिया गया। उनका अभियोग अंतरराष्ट्रीय अदालत हेग में लड़ा गया। ये पहला अवसर था जब किसी क्रांतिकारी का अभियोग अंतरराष्ट्रीय अदालत में लड़ा गया था। विनायक दामोदर सावरकर को दो जन्मों की कठोर कारावास की सजा मिली। कोर्ट में ब्रिटिश अधिकारी ने पूछा कि दो जन्मों का कारावास है यानी 50 वर्षों का सह पाओगे? वीर सावरकर ने जवाब में सवाल किया- तुम्हारी सत्त्ता तब तक रहेगी?वीर सावरकर 1911 से 1921 तक अंडमान जेल में रहे।
यहां स्वतंत्रता सेनानियों को कड़ा परिश्रम करना पड़ता था। कैदियों को यहां नारियल छीलकर उसमें से तेल निकालना पड़ता था। साथ ही इन्हें यहां कोल्हू में बैल की तरह जुत कर सरसों व नारियल आदि का तेल निकालना होता था। इसके अलावा उन्हें जेल के साथ लगे व बाहर के जंगलों को साफ कर दलदली भूमि व पहाड़ी क्षेत्र को समतल भी करना होता था। रुकने पर उनको कड़ी सजा व बेंत व कोड़ों से पिटाई भी की जाती थीं। इतने पर भी उन्हें भरपेट खाना भी नहीं दिया जाता था।
1921 में वे स्वदेश लौटे और फिर 3 साल जेल भोगी। जेल में ‘हिन्दुत्व’ पर शोध ग्रंथ लिखा। दुनिया के वे ऐसे पहले कवि थे जिन्होंने अंडमान के एकांत कारावास में जेल की दीवारों पर कील और कोयले से कविताएं लिखीं और फिर उन्हें याद किया। इस प्रकार याद की हुई 10 हजार पंक्तियों को उन्होंने जेल से छूटने के बाद पुन: लिखा।सावरकर ने 10000 से अधिक पन्ने मराठी भाषा में तथा 1500 से अधिक पन्ने अंग्रेजी में लिखा है।
बहुत कम मराठी लेखकों ने इतना मौलिक लिखा है। उनकी “सागरा प्राण तळमळला”, “हे हिंदु नृसिंहा प्रभो शिवाजी राजा”, “जयोस्तुते”, “तानाजीचा पोवाडा” आदि कविताएँ अत्यन्त लोकप्रिय हैं। स्वातंत्र्यवीर सावरकर की 40 पुस्तकें मण्डी में उपलब्ध हैं, जो निम्नलिखित हैं-अखंड सावधान असावे ; १८५७ चे स्वातंत्र्यसमर ; अंदमानच्या अंधेरीतून ; अंधश्रद्धा भाग १ ; अंधश्रद्धा भाग २ ; संगीत उत्तरक्रिया ; संगीत उ:शाप ; ऐतिहासिक निवेदने ; काळे पाणी ; क्रांतिघोष ; गरमा गरम चिवडा ; गांधी आणि गोंधळ ; जात्युच्छेदक निबंध ; जोसेफ मॅझिनी ; तेजस्वी तारे ; प्राचीन अर्वाचीन महिला ; भारतीय इतिहासातील सहा सोनेरी पाने ; भाषा शुद्धी ; महाकाव्य कमला ; महाकाव्य गोमांतक ; माझी जन्मठेप ; माझ्या आठवणी – नाशिक ; माझ्या आठवणी – पूर्वपीठिका ; माझ्या आठवणी – भगूर ; मोपल्यांचे बंड ; रणशिंग ; लंडनची बातमीपत्रे ; विविध भाषणे ; विविध लेख ; विज्ञाननिष्ठ निबंध ; शत्रूच्या शिबिरात ; संन्यस्त खड्ग आणि बोधिवृक्ष ; सावरकरांची पत्रे ; सावरकरांच्या कविता ; स्फुट लेख ; हिंदुत्व ; हिंदुत्वाचे पंचप्राण ; हिंदुपदपादशाही ; हिंदुराष्ट्र दर्शन ; क्ष – किरणें।फरवरी, 1931 में इनके प्रयासों से मुम्बई में पतित पावन मन्दिर की स्थापना हुई, जो सभी हिन्दुओं के लिए समान रूप से खुला था।
वे पहले भारतीय राजनीतिक बन्दी थे जिसने एक अछूत को मन्दिर का पुजारी बनाया था।25 फ़रवरी 1931 को सावरकर ने बम्बई प्रेसीडेंसी में हुए अस्पृश्यता उन्मूलन सम्मेलन की अध्यक्षता की।1937 में वे अखिल भारतीय हिन्दू महासभा के कर्णावती (अहमदाबाद) में हुए 19वें सत्र के अध्यक्ष चुने गये, जिसके बाद वे पुनः सात वर्षों के लिये अध्यक्ष चुने गये। 13 दिसम्बर 1937 को नागपुर की एक जन-सभा में उन्होंने अलग पाकिस्तान के लिये चल रहे प्रयासों को असफल करने की प्रेरणा दी थी।
22 जून 1941 को उनकी भेंट नेताजी सुभाष चंद्र बोस से हुई। 9 अक्टूबर 1942 को भारत की स्वतन्त्रता के निवेदन सहित उन्होंने चर्चिल को तार भेज कर सूचित किया। सावरकर जीवन भर अखण्ड भारत के पक्ष में रहे।सावरकर, सार्जेंट मेजर मोहनदास गांधी के कटु आलोचक थे। उन्होने अंग्रेजों द्वारा द्वितीय विश्वयुद्ध के समय जर्मनी के विरुद्ध हिंसा को गांधीजी द्वारा समर्थन किए जाने को ‘पाखण्ड’ घोषित दिया।सावरकर ने भारत की आज की सभी राष्ट्रीय सुरक्षा सम्बन्धी समस्याओं को बहुत पहले ही भाँप लिया था।
1962 में चीन द्वारा भारत पर आक्रमण करने के लगभग दस वर्ष पहले ही कह दिया था कि चीन भारत पर आक्रमण करने वाला है। भारत के स्वतंत्र हो जाने के बाद गोवा की मुक्ति की आवाज सबसे पहले सावरकर ने ही उठायी थी।ऐसे महामानव के विषय में जितना लिखा जाए उतना कम है।वे केवल एक क्रांतिकारी नहीं थे अपितु एक भाषाविद, बुद्धिवादी, कवि, दृढ राजनेता, समर्पित समाज सुधारक, दार्शनिक, द्रष्टा, महान् कवि और महान् इतिहासकार और ओजस्वी वक्ता भी थे। उनके इन्हीं गुणों ने महानतम लोगों की श्रेणी में उच्च पद पर लाकर खड़ा कर दिया। माँ भारती के इस सच्चे सपूत को उनकी जयन्ती पर कोटि-कोटि वन्दन है।
(आभार: तजोमहालय आगरा ग्रुप से)