पहाड़ों में मतदान प्रतिशत का घटना निराशाजनक ही नहीं बल्कि सरकारों की नाकामी का भी प्रत्यक्ष उदाहरण

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राजेन्द्र सिंह नेगी, श्रीनगर (गढ़वाल)। पहाड़ों में कुल मतदान प्रतिशत का लगातार घटना चिंता जनक है। मतदान प्रतिशत का घटना पहाडों से तीव्रगति से होता पलायन और सरकारों की नाकामी का एक जीता जागता साक्ष्य है। इस बार के लोकसभा चुनाव में पूरे प्रदेशभर में 53.56% ही मतदान हुआ। जोकि पिछले लोकसभा चुनाव 2019 से लगभग 5% (प्रतिशत) कम है। पिछले लोकसभा चुनाव में प्रदेश में मतदान 58.01% (प्रतिशत) हुआ था।


इस बार के लोकसभा चुनाव में सबसे चिंता जनक स्थिति पहाड़ी क्षेत्रों की रही है यहां कि बात करें तो पौड़ी गढ़वाल और अल्मोड़ा में 50% (प्रतिशत) से भी कम मतदान हुआ है। उत्तराखंड में सबसे कम मतदान प्रतिशत अल्मोड़ा लोकसभा का रहा। अल्मोड़ा में 44.43% (प्रतिशत) ही मतदान हुआ तो वहीं दूसरे नम्बर पर पौड़ी गढ़वाल रहा। यहां कुल मतदान 48.79 % ( प्रतिशत) रहा। ये दोनों लोकसभा सीटें पहाड़ी क्षेत्रों में आती है। इसके अलावा टिहरी लोकसभा में 51.01% (प्रतिशत) कुल मतदान हुआ। वहीं मैदानी इलाकों में वोटिंग प्रतिशत पहाड़ी क्षेत्रों के मुकाबले अच्छा रहा है। हरिद्वार में जहां 59.01% (प्रतिशत) कुल मतदान हुआ तो वहीं सर्वाधिक मतदान नैनीताल लोकसभा में हुआ यहां कुल मतदान 59.36% (प्रतिशत) हुआ।


इन सबके बीच भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष महेंद्र भट्ट ने अपने सोशल मीडिया प्लेटफार्म फ़ेसबुक पर लिखा कि घटते मतदान की वजह पहाड़ो में हो रही शादी है हर घर में दो शादियां हो रही है। उन्होंने कम मतदान का दोषी शादी को माना है। इस तरह के बयान हास्यास्पद है। जबकि घटते मतदान कि वजह साफ है तीव्रगति से हो रहा पलायन। रोजगार की तलाश में दूसरे प्रदेशों में चक्कर काट रहा युवा है। उत्तराखंड में युवाओं की एक बड़ी तादात है जो वोट नहीं कर पाते है। इन सब मुद्दों पर बात करने की जगह हमारे नेता शादी को दोष दे रहे है।


कम मतदान प्रतिशत बता रहा है कि मोदी लहर का असर अब नहीं रहा है लोगों में अब वो दिलचस्पी नहीं रही। हां,चुनाव आयोग की ओर से मतदान प्रतिशत बढ़े इसके लिए भरपूर प्रयास किये गए। जिसके लिए उत्तराखंड के मुख्य निर्वाचन अधिकारी और उनकी पूरी टीम की भरपूर तारीफ की जानी चाहिए।
वहीं उत्तराखंड के पहाड़ी क्षेत्रों में रहने वाले लोगों की चिंताएं बढ़ती जा रही है इसकी मुख्य वजह आने वाले कुछ सालों में परिसीमन का होना है परिसीमन जनसंख्या के आधार पर होता आया है यहां पूर्व में हुए परिसीमन की वजह से पहाड़ की विधानसभा की 6 सीटें मैदानी इलाकों में चली गई थी।

पहाड़ो से लगातार पलायन मैदानी इलाकों में हो रहा है ऐसे में पहाड़ से आने वाले समय में लोकसभा और विधानसभा की सीटें और कम हो सकती है। जिससें यहां के पहाड़ी क्षेत्रों में रहने वाले लोगों का कहना है कि जनसंख्या के आधार पर परिसीमन का होना उत्तराखंड के मूल मकसद पहाड़ी राज्य की कल्पना को खत्म कर देगा है। क्योंकि, 9 नवंबर 2000 को जब उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश से अलग हुआ था तो यहां के लोगों की एक ही मांग थी। कि हमें पहाड़ी राज्य और पहाड़ी राजधानी चाहिए और पहाड़ी राज्य की राजधानी के लिए जो जगह चुनी गई वो गैरसैंण थी। गैरसैंण किसी तरह से नाम की ग्रीष्मकालीन राजधानी तो बन गई। लेकिन राजधानी आज तक नहीं बन पाई। ऐसे में यहां पहाड़ और मैदान की लड़ाई जग जाहिर है। यहां पहाड़ो में जैसें ही लोगों की आर्थिक स्थिति मजबूत होती है वैसें ही ज्यादातर लोग मैदानी इलाकों की और पलायन कर जाते है। ऐसे में बढ़ती मैदानी इलाकों की जनसंख्या और घटती पहाड़ी इलाको की संख्या से उत्तराखंड में आने वाले सालों में सीटों में फिर बदलाव होने के आसार दिख रहे है। इसकी एक झलक इस बार के आगामी लोकसभा चुनाव में कुल मतदान प्रतिशत से दिख रही है।


पहाड़ो को अगर बचना है तो यहां के युवाओं को किसी तरह से पहाड़ में ही रोजगार उपलब्ध कराने पर सरकारों को ध्यान देने की सख्त जरूरत है। दूसरा यहां परिसीमन भौगोलिक आधार पर हो तो पहाड़ के वासियों की चिंता का समाधान हो सकता है क्योंकि पहाड़ के लोगों का साफ कहना है कि मैदानी इलाकों में अधिक सीटे होने की वजह से उनकी अनदेखी हो रही है। और ये बात काफी हद तक सच भी है क्योंकि अभी हाल ही में उत्तराखंड का प्रस्तावित विधानसभा सत्र गैरसैंण में होना था लेकिन उसको गैरसैंण में इसलिये नहीं किया गया। क्योंकि उत्तराखंड के कुछ विधायकों ने विधानसभा अध्यक्ष को पत्र लिखकर कहाँ कि उन्हें गैरसैंण में ठंड लगती है जिस कारण गैरसैंण में प्रस्तावित विधानसभा सत्र को देहरादून में ही चलाया गया।

पिछली बार जब प्रधानमंत्री उत्तराखंड में आये थे तो उन्होंने मंच से कहा था कि हमारी सरकार का मकसद “पहाड़ का पानी और पहाड़ की जवानी” पहाड़ के काम आए। इस और काम करने का है लेकिन अभी तक धरातल पर कुछ भी नजर नहीं आ रहा है। उम्मीद है कि सरकारें घटते मतदान प्रतिशत की चिंता को गंभीरता से लेते हुए भविष्य में इस ओर बेहतर कार्य करेगी।

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