यह कहानी है शाहजहांपुर के आजादी के दीवाने “रामप्रसाद बिस्मिल” की, पढ़िए जरूर

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“सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है,

देखना है ज़ोर कितना बाज़ू-ए-कातिल में है।”

भारत के स्वतंत्रता संग्राम में ये पंक्तियाँ सेनानियों का प्रसिद्ध नारा बनीं। 1921 में बिस्मिल अज़ीमाबादी की लिखी इन पंक्तियों को जिस व्यक्ति ने अमर बना दिया वह थे राम प्रसाद बिस्मिल!बिस्मिल, एक स्वतंत्रता सेनानी होने के साथ-साथ एक कवि भी थे, जिन्होंने उर्दू व हिन्दी में ‘राम,’ ‘अज्ञात,’ और ‘बिस्मिल’ उपनाम से बहुत-सी कवितायें लिखी थीं। वह हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन के संस्थापक भी थे, जिसमें भगत सिंह व चन्द्रशेखर आज़ाद जैसे सेनानी शामिल थे पर स्वतंत्रता के बाद भारत ने उनके योगदानों को जैसे भुला ही दिया है।

11 जून, 1887 में उत्तर प्रदेश के शाहजहाँपुर में मुरलीधर व मूलमती के पुत्र के रूप में जन्मे बिस्मिल का पालन-पोषण चंबल घाटी के एक छोटे से गाँव में हुआ। किशोरावस्था से ही उन्होंने भारतीयों के प्रति ब्रिटिश सरकार के क्रूर रवैये को देखा था। इससे आहात बिस्मिल का कम उम्र से ही क्रांतिकारियों की तरफ झुकाव होने लगा।जितनी आसानी से उनके हाथ कलम पकड़ते थे, उतने ही आराम से उनके हाथ पिस्तौल भी चला लेते थे।

बिस्मिल ने बंगाली क्रांतिकारी सचीन्द्र नाथ सान्याल और जादूगोपाल मुखर्जी के साथ मिलकर, हिंदुस्तान रिपब्लिक एसोसिएशन (एचआरए) की स्थापना की- उत्तर भारत स्थित यह ऐसा संगठन था जिसने भारत को अंग्रेज़ी शासन से मुक्त करवाने की प्रतिज्ञा की थी।एचआरए के लिए बिस्मिल अपनी देशभक्त माँ, मूलमती से पैसे उधार लेकर किताबें लिखते व प्रकाशित करते थे।

‘देशवासियों के नाम’, ‘स्वदेशी रंग’, ‘मन की लहर’, और ‘स्वाधीनता की देवी’ जैसी किताबें इसका उदाहरण हैं। इन किताबों की बिक्री से उन्हें जो भी पैसे मिलते उससे वह पार्टी के लिए शस्त्र खरीदते थे।साथ ही, उनकी किताबों का उद्देश्य जन-मानस के मन में क्रांति के बीज बोना था। यह वही समय था जब उनकी भेंट अन्य क्रांतिकारियों, जैसे अशफ़ाक़ उल्ला खान, रोशन सिंह व राजेंद्र लाहिड़ी से हुई। आगे चलकर ये सभी अभिन्न मित्र भी बन गए।

उन्होंने ही चंद्रशेखर आज़ाद और भगत सिंह जैसे नवयुवकों को हिंदुस्तान रिपब्लिक एसोसिएशन से जोड़ा, जो कि बाद में हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिक एसोसिएशन बन गयी। बिस्मिल ने आज़ाद के उनकी कभी शांत न बैठने और नए विचारों के लिए हमेशा उत्साहित रहने वाले स्वाभाव से प्रभावित हो कर, उन्हे ‘क्विक सिल्वर’ का उपनाम दिया था।

बिस्मिल की कहानी अशफ़ाक़ उल्ला खान के जिक्र के बिना अधूरी है। एक जैसी सोच और सिद्धान्त रखने वाले इन दोनों दोस्तों के दिल में देशभक्ति कूट-कूट कर भरी हुई थी। दोनों साथ रहते थे, साथ काम करते थे और हमेशा एक दूसरे का सहारा बनते थे। बिस्मिल ने अपनी आत्मकथा में एक पूरा अध्याय अपने परम मित्र अशफ़ाक़ को समर्पित किया है।

बिस्मिल और अशफ़ाक़, दोनों ने साथ मिलकर 1925 में काकोरी कांड को अंजाम दिया था। उन्हें अनुभव हो गया था कि ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध एक संगठित विद्रोह करने के लिए शस्त्रों की आवश्यकता है। जिसके लिए पैसों के साथ-साथ प्रशिक्षित लोगों की आवश्यकता भी होगी। ऐसे में, इस संगठन ने अंग्रेज़ सरकार की संपत्ति को लूटने का निर्णय लिया।

9 अगस्त, 1925 की रात को जब शाहजहाँपुर से लखनऊ जाने वाली नंबर 8 डाउन ट्रेन काकोरी पहुँच रही थी, तभी अशफ़ाक़ उल्ला ने सेकंड क्लास कम्पार्टमेंट की चेन खींच दी। अचानक से ट्रेन रुक गयी और अशफ़ाक़ अपने दो अन्य साथियों, सचीन्द्र बक्शी व राजेंद्र लाहिड़ी के साथ उतर गए। यह योजना का पहला चरण था जिसे इन तीनों क्रांतिकारियों ने पूरा किया।

इसके बाद ये तीनों साथी, बिस्मिल व अन्य क्रांतिकारियों से मिले और ट्रेन के गार्ड को हटा कर उन्होंने सरकारी संपत्ति लूट ली। इस घटना ने अंग्रेजी शासन को हिला कर रख दिया था और उन्होंने लूट के एक महीने के अंदर-अंदर ही 2 दर्जन से ज़्यादा क्रांतिकारियों (जिनमें बिस्मिल भी शामिल थे) को गिरफ्तार कर लिया।उन पर मुकदमा चला और चार क्रांतिकारी– राम प्रसाद बिस्मिल, अशफ़ाक़ उल्ला खान, रोशन सिंह और राजेंद्र नाथ लाहिड़ी को फांसी की सज़ा सुनाई गयी। इन चारों को अलग- अलग जेलो में बंद कर दिया गया।

बाकी सभी क्रांतिकारियों को लंबे समय के लिए कारावास की सजा मिली।लखनऊ सेंट्रल जेल के बैरक नंबर 11 में जेल की सजा काटते हुए बिस्मिल ने अपनी आत्मकथा लिखी, जिसे 1928 में पत्रकार गणेश शंकर विद्यार्थी ने प्रकाशित किया। इस आत्मकथा की गिनती आज भी हिंदी साहित्य की बेहतरीन कृतियों में होती है। अपने कारावास के समय ही बिस्मिल ने ‘मेरा रंग दे बसंती चोला’ गीत की रचना भी की। यह गीत भी स्वतंत्रता संग्राम के चर्चित गीतों में से एक है।

सभी प्रकार से मृत्यु दंड को बदलने के लिए की गई दया प्रार्थनाओं के अस्वीकृत हो जाने के बाद बिस्मिल अपने महाप्रयाण की तैयारी करने लगे। अपने जीवन के अंतिम दिनों में गोरखपुर जेल में उन्होंने अपनी आत्मकथा लिखी। फांसी के तख्ते पर झूलने के तीन दिन पहले तक वह इसे लिखते रहे। इस विषय में उन्होंने स्वयं लिखा है- ‘आज 16 दिसम्बर, 1927 ई. को निम्नलिखित पंक्तियों का उल्लेख कर रहा हूं, जबकि 19 दिसंबर, 1927 ई. सोमवार (पौष कृष्ण 11 संवत 1984) को साढ़े छ: बजे प्रात: काल इस शरीर को फांसी पर लटका देने की तिथि निश्चित हो चुकी है। अतएव नियत सीमा पर इहलीला संवरण करनी होगी।’

19 दिसम्बर, 1927 को फाँसी पर चढ़ने से पहले बिस्मिल ने आखिरी पत्र अपनी माँ को लिखा था। होठों पर ‘जय हिन्द’ का नारा लिए मौत को गले लगाने वाले इस सेनानी को पूरे देश ने नम आँखों से विदाई दी। राप्ती नदी के किनारे उनका अंतिम संस्कार किया गया था और यहां भारत माँ के इस वीर बेटे को श्रद्धांजलि देने के लिए सैंकड़ों भारतीयों की भीड़ उमड़ी और भारत का एक महान स्वतंत्रता सेनानी मातृभूमि के लिए बलिदान हो गया।

आप यहां बिस्मिल अज़ीमाबादी की वह महान कविता पढ़ सकते हैं, जिसे गुनगुनाते हुए न जाने कितने ही स्वतंत्रता सेनानी फांसी के फंदे पर झूल गए-‘सरफ़रोशी की तमन्ना’:सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है,देखना है ज़ोर कितना बाजु-ए-कातिल में है?

करता नहीं क्यों दूसरा कुछ बातचीत, देखता हूँ मैं जिसे वो चुप तेरी महफ़िल में हैए शहीद-ए-मुल्क-ओ-मिल्लत मैं तेरे ऊपर निसार,अब तेरी हिम्मत का चर्चा गैर की महफ़िल में है।वक्त आने दे बता देंगे तुझे ऐ आसमां!हम अभी से क्या बतायें क्या हमारे दिल में है? खींच कर लायी है सब को कत्ल होने की उम्मीदआशिकों का आज जमघट कूच-ए-कातिल में है सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है। है लिये हथियार दुश्मन ताक में बैठा उधरऔर हम तैयार हैं सीना लिये अपना इधरखून से खेलेंगे होली गर वतन मुश्किल में हैसरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है। हाथ जिनमें हो जुनूँ, कटते नही तलवार सेसर जो उठ जाते हैं वो झुकते नहीं ललकार सेऔर भड़केगा जो शोला-सा हमारे दिल में हैसरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है। हम तो निकले ही थे घर से बाँधकर सर पे कफ़नजाँ हथेली पर लिये लो बढ़ चले हैं ये कदमज़िंदगी तो अपनी मेहमाँ मौत की महफ़िल में हैसरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है। यूँ खड़ा मक़तल में कातिल कह रहा है बार-बार,क्या तमन्ना-ए-शहादत भी किसी के दिल में है? दिल में तूफानों की टोली और नसों में इंक़लाबहोश दुश्मन के उड़ा देंगे हमें रोको ना आजदूर रह पाये जो हमसे दम कहाँ मंज़िल में हैसरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है।जिस्म वो क्या जिस्म है जिसमें न हो खून-ए-जुनूँक्या लड़े तूफाँ से जो कश्ती-ए-साहिल में है, सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है, देखना है ज़ोर कितना बाज़ु-ए-कातिल में है।

मूल लेख: संचारी पाल

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