क्या आप जानते हैं संघ के इन तीन महा योद्धाओं को…

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महावीर सिघंल, लव इंडिया। क्या जानते हैं राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के इन 3 योद्धाओं को अगर नहीं तो शुरू से अंत तक एक-एक शब्द को ध्यान से पढ़िए क्योंकि इन्हीं की बदौलत आज देश बदल रहा है।

जन्म-तिथि: संघमय उड़ीसा के मंत्रदाता बाबूराव पालधीकर

आज संघ का काम भारत के हर जिले और तहसील में है। इसकी नींव में वे लोग हैं, जिन्होंने विरोध और अभावों में संघ कार्य की फसल उगाई। उड़ीसा में संघ कार्य के सूत्रधार थे श्री दत्तात्रेय भीकाजी (बाबूराव) पालधीकर।बाबूराव का जन्म 21 जनवरी, 1921 में ग्राम बेढ़ोेना (वर्धा, महाराष्ट्र) में हुआ था। उनके पिताजी और चाचा जी भी स्वयंसेवक थे, इसलिए वे बालपन में ही डा0 हेडगेवार के सम्पर्क में आ गयेे। दत्तोपंत ठेंगड़ी आर्वी में इनके सहपाठी थे और इन्होंने ही उन्हें स्वयंसेवक बनाया था। मेधावी छात्र होने के साथ ही इनकी साहित्यिक तथा सांस्कृतिक गतिविधियों में भरपूर रुचि थी। 1940 में बाबूराव ने तृतीय वर्ष का प्रशिक्षण पूरा किया। उसी वर्ष नागपुर से बी.ए. कर वे प्रचारक बने और उन्हें फिरोजपुर (पंजाब) में जिला प्रचारक बनाकर भेजा गया। बाबूराव को मराठी, संस्कृत तथा अंग्रेजी आती थीं; पर एक वर्ष में ही उन्होंने हिन्दी, उर्दू तथा पंजाबी भी सीख ली। 1944 में वे विभाग प्रचारक तथा 1947 में सहप्रांत प्रचारक बने। विभाजन के समय हिन्दुओं की रक्षा तथा उन्हें बचाकर लाने में बाबूराव की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण रही।1948 मेें गांधी हत्या के आरोप में संघ पर प्रतिबंध लगा दिया गया। इस दौरान उनके पिताजी को गांव में संघ विरोधियों ने खम्भे से बांध कर जलाना चाहा। वे तेल छिड़क चुके थे; पर तभी पुलिस के आने से वे बच गये। प्रतिबंध के बाद 1949 में उन्हें उड़ीसा में प्रांत प्रचारक बनाकर भेजा गया। उड़ीसा में तब केवल चार शाखाएं थीं। उस स्थिति में काम करना एक बड़ी चुनौती थी। उड़ीसा में आज भी घोर निर्धनता है। समुद्र तटीय क्षेत्र में तूफान, चक्रवात आदि से प्रायः तबाही होती रहती है। ऐसे में बाबूराव ने वहां काम खड़ा किया और धीरे-धीरे उड़ीसा में 200 शाखा हो गयीं। वे कार्यकर्ताओं को सदा ‘संघमय उड़ीसा’ बनाने का संकल्प दिलाते रहते थे।कटक के पास महानदी की सहायक नदी काठजोड़ी बहती है। निराशा के क्षणों में बाबूराव उसके तट पर जा बैठते थे। नदी की उत्ताल तरंगों को देखकर उनकी हताशा दूर हो जाती। शारीरिक विषयों में दंड तथा घोष में शंख के वे लम्बे समय तक शिक्षक रहेे। उनका सम्पर्क सब तरह के लोगों से था। उनके प्रयास से कटक के बैरिस्टर नीलकंठ दास ने एक बार नागपुर के विजयादशमी उत्सव में अध्यक्षता की। इसके बाद वे संघ कार्य में बड़े सहायक हुए। श्री हरेकृष्ण महताब से भी उनके निकट संबंध थे, जो आगे चलकर मुख्यमंत्री बने। बाबूराव बड़े साहसी तथा प्रत्युत्पन्नमति व्यक्ति थे। पंजाब तथा उड़ीसा में कई बार वे पुलिस के हत्थे चढ़े; पर हर बार बच निकले। विभाजन के बाद बंगाल से आ रहे हिन्दुओं की रेलों पर मुसलमानों द्वारा किये गये पथराव से भड़क कर हिन्दुओं ने उन्हें अच्छा मजा चखाया। राउरकेला में इससे दंगा भड़क उठा। इस कारण बाबूराव को चार माह तक कटक जेल में रहना पड़ा। 1975 के आपातकाल में बाबूराव को पुलिस पकड़ नहीं पायी।1980 में उन्हें पूर्वी क्षेत्र का प्रचारक बनाया गया। इससे उनके अनुभव का लाभ उड़ीसा के साथ ही बंगाल, असम, सिक्किम तथा अंदमान को भी मिलने लगा। वृद्धावस्था जन्य अनेक रोगों के कारण 1992 में उन्हें दायित्व से विश्राम दे दिया गया और वे कटक कार्यालय पर ही रहने लगे। वे विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं से अच्छे समाचार, लेख आदि का ओड़िया में अनुवाद कर ‘राष्ट्रदीप’ साप्ताहिक में प्रकाशनार्थ देते रहते थे। उनकी स्मृति अंत तक बहुत तीव्र थी। 12 अक्तूबर, 2003 को कटक में ही उनका देहांत हुआ।

पुण्य-तिथि: सतत सक्रिय मोती सिंह राठौड़

संघ कार्य को एक बार मन और बुद्धि से स्वीकार करने के बाद आजीवन उसे निभाने वाले कार्यकर्ताओं की एक लम्बी शृंखला है। राजस्थान में श्री मोती सिंह राठौड़ ऐसे ही एक कार्यकर्ता थे।मोती सिंह जी का जन्म 40 घरों वाले एक छोटे से ग्राम ठिठावता (जिला सीकर) में चैत्र शुक्ल 13, वि0संवत 1985 (अपै्रल 1928) में हुआ था। यहां के शिक्षाप्रेमी बुजुर्गों ने बच्चों को पढ़ाने के लिए अपनी ओर से दस रु0 मासिक पर एक अध्यापक को नियुक्त किया। उसके भोजन व आवास की व्यवस्था भी गांव में ही कर दी गयी। इस प्रकार गांव में अनौपचारिक शिक्षा एवं विद्यालय की स्थापना हो गयी। आगे चलकर सीकर राजघराने ने विद्यालय चलाने की जिम्मेदारी ले ली। इससे शैक्षिक वातावरण में और सुधार हुआ।इसी विद्यालय से कक्षा चार की परीक्षा उत्तीर्ण कर मोती सिंह जी और उनके बड़े भाई सीकर के माधव विद्यालय में भर्ती हो गये। दोनों भाई पढ़ने में तेज थे। अतः उन्हें पांच रु0 मासिक छात्रवृत्ति मिलने लगी तथा वे विद्यालय के छात्रावास में रहने लगे। पढ़ाई के साथ ही वे खेल, नाटक तथा अन्य सांस्कृतिक गतिविधियों में भी आगे रहते थे। उन्हें कविता लिखने का भी शौक था। कल्याण हाईस्कूल के एक कार्यक्रम में उन्होंने छात्रावास की दुर्दशा पर राजस्थानी बोली में एक कविता सुनाई। इसके लिए उन्हें पुरस्कार तो मिला ही, साथ में छात्रावास की हालत भी सुधर गयी। इंटर करने के बाद वे अध्यापक हो गये तथा क्रमशः एम.एड. तक की शिक्षा पायी।कक्षा नौ में पढ़ते समय सीकर में वे संघ के सम्पर्क में आये। जयपुर में हाई स्कूल की परीक्षा देते समय वहां पान के दरीबे में लगने वाली शाखा के शारीरिक कार्यक्रमों एवं देशभक्तिपूर्ण गीतों से वे बहुत प्रभावित हुए। नवलगढ़ से इंटर करते समय अजमेर से पढ़ने और शाखा का काम करने आये श्री संतोष मेहता के सान्निध्य में रहते हुए संघ से उनके संबंध और प्रगाढ़ हो गये। 1947 में प्रथम वर्ष संघ शिक्षा वर्ग करने केे बाद वे प्रचारक बन गये।पर जनवरी 1948 में गांधी जी की हत्या के बाद संघ पर प्रतिबन्ध लग गया। संघ की योजना से वे सीकर के ‘श्री हिन्दी विद्या भवन’ में अध्यापक बन गये। वहां रहते हुए उन्होंने सत्याग्रह का सफल संचालन किया। प्रतिबन्ध के बाद 1950 में उन्होंने द्वितीय वर्ष का प्रशिक्षण लिया। 1953 में बिसाऊ में सरकारी अध्यापक के नाते उनकी नियुक्ति हो गयी। 1982 में सेवा निवृत्ति के 30 वर्ष में उन्होंने प्राचार्य से लेकर जिला शिक्षाधिकारी तक अनेक जिम्मेदारियां निभाईं। वे जहां भी रहे, संघ को भी भरपूर समय देते रहे। अध्यापक जीवन में उन्होंने कठोरता व पूर्ण निष्ठा से अपने कर्तव्य का पालन किया। इस कारण कांग्रेस की सत्ता होने पर किसी ने उनकी ओर उंगली नहीं उठाई। सेवा निवृत्ति के बाद वे पूरा समय संघ को ही देने लगे। सीकर विभाग कार्यवाह रहते हुए वे इतना प्रवास करते थे कि वरिष्ठ अधिकारियों को वहां प्रचारक देने की आवश्यकता ही नहीं हुई। इसके बाद वे जयपुर प्रांत कार्यवाह और फिर राजस्थान क्षेत्र के कार्यवाह रहे। उनके समय में दूरस्थ क्षेत्रों में भी संघ शाखाओं में वृद्धि हुई। सभी आयु वर्ग के स्वयंसेवकों में वे लोकप्रिय थे। आयु संबंधी अनेक समस्याओं के कारण जब उन्हें प्रवास में कठिनाई होने लगी, तो उन्होंने क्षेत्र कार्यवाह के दायित्व से मुक्ति ले ली; पर कार्यकर्ता उन्हें छोड़ना नहीं चाहते थे। अतः सबके आग्रह पर उन्होंने सीकर विभाग संघचालक का दायित्व स्वीकार किया। एक बार वे सीकर संघ कार्यालय में गिर गये। इससे उनके मस्तिष्क में चोट आ गयी। जयपुर के चिकित्सालय में उनका इलाज हो रहा था। 21 जनवरी, 2009 को वहीं उनका देहांत हो गया। (संदर्भ : पाथेय कण 1.2.2009)

जन्म-दिवस: चलते-फिरते संघकोश ज्योतिस्वरूप

श्री ज्योतिस्वरूप जी का जन्म मवाना (जिला मेरठ, उ.प्र.) के पास ग्राम नगला हरेरू में 21 जनवरी, 1922 को हुआ था। सेना की अभियन्त्रण इकाई (एम.ई.एस.) में कार्यरत श्री रामगोपाल कंसल तथा माता श्रीमती इमरती देवी की नौ संतानों में ज्योति जी सबसे बड़े थे। पिताजी के साथ बैरकपुर छावनी में रहते हुए वे एक मिशनरी विद्यालय में पढ़ते थे। कक्षा चार में ईसाई अध्यापक ने बताया कि ईश्वर ने सृष्टि निर्माण के चौथे दिन सूरज और चांद बनाये। प्रखर मेधा के धनी बालक ज्योति ने पूछा कि बिना सूरज और चांद के ईश्वर को पता कैसे लगा कि आज चौथा दिन है ? अध्यापक निरुत्तर हो गया। आगे चलकर उच्च शिक्षा के लिए जब वे मेरठ आये, तो उनका संघ से सम्पर्क हुआ। मेरठ में रहते हुए वीर सावरकर तथा सुभाष चंद्र बोस जैसे महान नेताओं को देखने और सुनने का भी अवसर मिला। 1940 में रक्षाबंधन वाले दिन बाबासाहब आप्टे की उपस्थिति में उन्होंने संघ की प्रतिज्ञा ग्रहण की।1943 में स्नातक की पढ़ाई पूर्ण कर वे संघ के प्रचारक बन गये। तब तक उन्होंने तृतीय वर्ष का प्रशिक्षण भी पूर्ण कर लिया था। प्रारम्भ में उन्होंने एक वर्ष का समय देने का निश्चय किया था। एक वर्ष पूरा होने पर उन्होंने तत्कालीन प्रान्त प्रचारक श्री वसंतराव ओक से वापस जाने के लिए पूछा। श्री ओक ने कहा कि यदि सब वापस चले जाएंगे, तो संघ का काम कौन करेगा ? यह सुनकर ज्योति जी ने वापस जाने का विचार सदा के लिए छोड़ दिया।सर्वप्रथम उन्हें मेरठ के निकटवर्ती मुजफ्फरनगर जिले का काम दिया गया। इसके बाद उन्हें राजस्थान, जम्मू-कश्मीर तथा हिमाचल प्रदेश में जिला, विभाग प्रचारक आदि जिम्मेदारियां दी गयीं। 1965 में उन्हें दिल्ली कार्यालय पर चमनलाल जी का सहायक और 1975 में पंजाब में प्रान्तीय कार्यालय प्रमुख बनाया गया। 1979 में रज्जू भैया ने उन्हें दिल्ली बुला लिया और फिर अंत तक वे झंडेवाला कार्यालय पर ही रहे। इस दौरान उन पर प्रांत व्यवस्था प्रमुख, कार्यालय प्रमुख, पुस्तकालय व अभिलेखागार जैसे अनेक काम रहे। दुबले-पतले ज्योति जी का व्यक्तित्व बहुत साधारण था। इस कारण 1948 तथा 1975 के प्रतिबंध में वे भूमिगत रहकर काम करते रहे। वे प्रायः एक धोती के दो टुकड़े कर उसे ही आधा-आधा कर पहनते थे। बिजली और पानी के अपव्यय से उन्हें बहुत कष्ट होता था। पानी बचाने के लिए वे कई बार स्नान के समय गीले तौलिये से ही शरीर पोंछ लेते थे। कहीं भी बिजली या पंखा व्यर्थ चलता दिखता, तो वे उसे बंद कर देते थे। सफाई के प्रति आग्रह इतना था कि वृद्धावस्था में भी कई बार वे स्वयं झाड़ू उठा लेते थे।अध्ययन के अनुरागी ज्योति जी पत्र-पत्रिकाओं को ध्यान से पढ़कर उसमें से काम की चीज निकाल कर उसे संभाल कर रखते थे। संघ परिवार के किसी पत्र में यदि कोई बात तथ्य के विपरीत छपी हो, तो वे तुरन्त पत्र लिखकर भूल को ठीक कराते थे। इस प्रकार वे चलते-फिरते संघकोश थे।कठोर जीवन तथा कम संसाधनों में जीवन यापन करने के अभ्यासी होने के कारण वे दूसरों से भी ऐसे ही व्यवहार की अपेक्षा करते थे। इस कारण उन्हें गुस्सा बहुत जल्दी आता था; पर कपूर की तरह वह उतनी ही जल्दी गायब भी हो जाता था। हृदय एवं मधुमेह रोग से ग्रस्त होने के कारण 90 वर्ष की सुदीर्घ आयु में 28 मई, 2012 की प्रातः दिल्ली कार्यालय पर ही उनका देहांत हुआ। (संदर्भ : पांचजन्य 22.10.2006 तथा 10.6.2012)

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