पुण्य तिथि पर जानिए व्यवस्था प्रिय श्रीकृष्णदास माहेश्वरी

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संघ के काम में अलग-अलग रुचि और प्रवृत्ति के लोग जुड़ते हैं। किसी की रुचि शारीरिक कार्यक्रमों में होती है, तो किसी की बौद्धिक में। कोई अस्त व्यस्त रहना पसंद करता है, तो कोई घोर व्यवस्थित। कोई मस्ती और शरारत पसंद करता है, तो कोई अनुशासन और गंभीरता। कोई शांतिप्रिय होता है, तो कोई क्रोधी और लड़ाई झगड़े में पैर फंसाने वाला। आगे चलकर उन्हीं में से फिर प्रचारक भी बनते हैं। तब उनके जीवन में कुछ बदल तो आती है; पर मूल स्वभाव प्रायः बना ही रहता है।

23 जुलाई, 1926 को हरदोई (उ.प्र.) जिले के छोटे से कस्बे माधोगंज के एक व्यवसायी परिवार में जन्मे श्रीकृष्णदास माहेश्वरी प्रारम्भ से ही धीर, गंभीर एवं व्यवस्था प्रिय स्वभाव के व्यक्ति थे। प्रारम्भिक शिक्षा पूर्ण कर वे कानपुर आ गये और वहां से बी.एस-सी किया। श्रीकृष्णदास जी के परिवार में संघ का माहौल नहीं था। उनके पिताजी व बड़े भाई कांग्रेसी थे; पर वे संघ के सम्पर्क में आकर उसी वातावरण में एकरस हो गये और 1947 में उन्होंने प्रचारक जीवन स्वीकार कर लिया।

प्रचारक जीवन में वे देहरादून, पीलीभीत, झांसी, फतेहपुर, जालौन, इटावा आदि अनेक स्थानों पर जिला व विभाग प्रचारक रहे। 1948 के प्रतिबंध के समय वे भी जेल में रहे। उनके स्वभाव की व्यवस्थाप्रियता देखकर उन्हें 1977 में ‘राष्ट्रधर्म प्रकाशन लिमिटेड’ का निदेशक बनाया गया। 1984 तक उन्होंने इस जिम्मेदारी को निभाया। उन दिनों प्रकाशन अनेक समस्याओं से ग्रस्त था।

श्रीकृष्णदास स्वभाव से बहुत कड़े व अनुशासनप्रिय थे। वे हिसाब-किताब में छोटी सी भी कमी सहन नहीं करते थे। उन्होेंने संस्थान की हर समस्या का गहन अध्ययन कर जहां एक ओर कड़ाई की, तो दूसरी ओर कर्मचारियों के वेतन व भत्तों में वृद्धि भी की। इससे कुछ ही समय में वातावरण बदल गया और घाटे में चलने वाला प्रकाशन लाभ देने लगा।प्रकाशन को ठीक करने के बाद वे फिर से संघ के प्रवासी काम में लग गये। अब उन्हें प्रयाग में संभाग प्रचारक का दायित्व मिला। 1988-89 में पूज्य डा’ हेडगेवार की जन्म शती मनायी गयी।

उसके बाद उत्तर प्रदेश का चार प्रान्तों में विभाजन हुआ और उन्हें ब्रज में प्रांत प्रचारक बनाया गया। यद्यपि इस समय तक मधुमेह, गठिया आदि अनेक रोग उन्हें घेर चुके थे। फिर भी उन्होंने व्यवस्थित प्रवास कर ब्रज प्रान्त में शाखाओं को सुदृढ़ किया।डा. जी की जन्मशती के बाद संघ के काम में सेवा का नया आयाम जोड़ा गया। यह अत्यन्त कठिन व धैर्य का काम था।

कृष्ण दास को उ.प्र. में इसे खड़ा करने की जिम्मेदारी दी गयी। वे प्रदेश के हर जिले में गये। प्रमुख केन्द्रों पर दो-तीन दिन रुक कर उन्होेंने सेवा कार्याें का पंजीकरण, साधन व कार्यकर्ताओं की व्यवस्था कराई। इससे कुछ ही समय में पूरे प्रदेश में सेवा कार्याें का संजाल स्थापित हो गया। उन्होंने कार्यकर्ताओं के दिशा निर्देश के लिए कुछ पुस्तकें भी लिखीं।इस लगातार प्रवास के कारण उनके स्वास्थ्य पर विपरीत प्रभाव पड़ रहा था।

हरदोई में उनके भतीजे प्रतिष्ठित चिकित्सक हैं। उन्होंने श्रीकृष्णदास जी को अपने पास बुला लिया; पर जैसे ही वे कुछ ठीक होते, फिर लखनऊ आ जाते। वस्तुतः उनका तन, मन और जीवन तो संघ के लिए ही समर्पित था। अंततः विधि के विधान की जीत हुई और 28 सितम्बर, 2002 को 76 वर्ष की आयु में अपने पैतृक स्थान माधोगंज में ही उनका देहांत हुआ।

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