पुण्य-तिथि: आपातकाल के शिकार पांडुरंग पंत क्षीरसागर

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पांडुरंग पंत क्षीरसागर का जन्म वर्धा (महाराष्ट्र) के हिंगणी गांव में हुआ था। बालपन में ही वे यहां की शाखा में जाने लगे। आगामी शिक्षा के लिए नागपुर आकर वे इतवारी शाखा के स्वयंसेवक बने, जो संख्या, कार्यक्रम तथा वैचारिक रूप से बहुत प्रभावी थी।

श्री बालासाहब देवरस उस शाखा के कार्यवाह थे। शीघ्र ही वे बालासाहब के विश्वस्त मित्र बन गये। उनकी प्रेरणा से पांडुरंग जी ने आजीवन संघ कार्य करने का निश्चय कर लिया।प्रारम्भ में उन्हें बंगाल में भेजा गया। बंगाल उन दिनों संघ के लिए एक कठिन प्रांत माना जाता था; पर उनके प्रयास से कुछ स्थानीय युवक प्रचारक बने।

उन्होंने चार-पांच साल वहां काम किया। इस बीच उन्हें ‘फ्लुरसी’ रोग हो गया। वहां के इलाज से उन्हें कुछ लाभ नहीं हुआ, अतः 1946 में उन्हें महाराष्ट्र के वाई गांव में तीन वर्ष तक चिकित्सा हेतु रखा गया। वहां से स्वास्थ्य लाभ कर उन्हें 1950 में नागपुर कार्यालय प्रमुख का काम दिया गया।उन दिनों सब केन्द्रीय कार्यकर्ताओं का केन्द्र नागपुर ही था।

सभी केन्द्रीय बैठकें भी वहीं होती थीं। इनकी व्यवस्था बहुत कुशलता से पांडुरंग जी करने लगे। इसके अतिरिक्त महाराष्ट्र के विभिन्न स्थानों से अनेक कार्यकर्ता चिकित्सा के लिए नागपुर आते थे। उनकी तथा उनके परिवारों की व्यवस्था भी पांडुरंग जी ही देखते थे। नागपुर से जाने वाले तथा साल में एक-दो बार घर आने वाले प्रचारकों के वस्त्र आदि की भी वे व्यवस्था करते थे।

इस प्रकार वे कार्यालय आने वाले सब कार्यकर्ताओं के अभिभावक की भूमिका निभाते थे।1955 में उन्हें अखिल भारतीय व्यवस्था प्रमुख की जिम्मेदारी दी गयी। वे अन्य कामों की तरह हिसाब-किताब भी बहुत व्यवस्थित ढंग से रखते थे। आपातकाल में पुलिस ने संघ कार्यालय का सब साहित्य जब्त कर लिया। वह संघ को बदनाम करना चाहती थी। अतः हिसाब-किताब बहुत बारीकी से जांचा गया; पर वह इतना व्यवस्थित था कि शासन कहीं आपत्ति नहीं कर सका।

आपातकाल के बाद वे बहियां वापस करते हुए सरकारी अधिकारियों ने कहा कि सार्वजनिक संस्थाओं का हिसाब कैसा हो, यह संघ से सीखना चाहिए।1962 में स्मृति मंदिर का निर्माण कार्य प्रारम्भ हुआ। उसकी देखरेख पांडुरंग जी पर ही थी। वहां राजस्थान के अनेक मुसलमान कारीगर भी काम कर रहे थे। उन्हीं दिनों वहां दंगा भड़क उठा। ऐसे में नागपुर के मुसलमानों ने कारीगरों से कहा कि संघ वाले तुम्हें नहीं छोड़ेंगे; पर वे पांडुरंग जी से इतने प्रभावित थे कि उन्होंने काम नहीं छोड़ा। इतना ही नहीं, तो स्मृति मंदिर बनने के बाद जब श्री गुरुजी राजस्थान के प्रवास पर गये, तो वे सब उनके मिलने आये।

आपातकाल में उन्हें ठाणे जेल में रखा गया। वहां अन्य दलों के लोग भी थे। उन सबसे पांडुरंग जी ने बहुत आत्मीय संबंध बना लिये। ठाणे का मौसम उनके लिए अनुकूल नहीं था, अतः उनका ‘फ्लुरसी’ का रोग फिर उभर आया। उन्होंने शासन को अपना स्थान बदलने का आवेदन दिया, जो व्यर्थ गया और अंततः 23 मार्च, 1976 को उसी जेल में उनका देहांत हो गया।पांडुरंग जी के अंतिम संस्कार नागपुर में ही किया गया।

आपातकाल के बावजूद हजारों लोग उनकी अंतिम यात्रा में शामिल हुए। इस प्रकार शासन की निर्ममता ने एक वरिष्ठ कार्यकर्ता के प्राण ले लिये। सब वरिष्ठ कार्यकर्ताओं को उन पर दृढ़ विश्वास था। इसीलिए सरसंघचालक श्री गुरुजी ने अपने वे तीन पत्र उनके पास रखे थे, जो उनके देहांत के बाद ही खोले गये। उनकी स्मृति में रेशीम बाग में बने एक भवन का नाम ‘पांडुरंग भवन’ रखा गया है। (संदर्भ : राष्ट्रसाधना भाग 2)

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