पुण्य तिथि पर विशेष: ज्ञान स्वरूप ‘कुमुद’ की कविताओं ने पाठ्य पुस्तकों में भी पाया स्थान …!

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निर्भय सक्सेना: हिंदी काव्य जगत में कई प्रतिभाएं गुमनाम रहकर भी अपने लेखन के बल पर पहचानी भी गई । उन्ही में एक रहे बहुआयामी प्रतिभा के धनी ज्ञान स्वरूप सक्सेना ‘कुमुद’ जी हिंदी साहित्य के सच्चे साधक थे। उन्होंने हिंदी जगत को पद्य एवं गद्य लेखन के क्षेत्र में अपना अमूल्य योगदान दिया। राजस्थान राज्य सरकार (शिक्षा विभाग) द्वारा समस्त उच्चतर माध्यमिक विद्यालयों हेतु स्वीकृत ‘संघ शक्ति’ में भी ‘कुमुद’ जी की कविताओं को स्थान भी मिला। आज कुमुद जी की पुण्य तिथि है।

किसी भी साहित्यकार का व्यक्तित्व उसकी साहित्यिक रचनाओं में ही विद्यमान रहता है । ज्ञान स्वरूप ‘कुमुद’ जी ने भारतीय जीवन के विविध पक्षों को लेकर साहित्य रचना की है। वह अपनी रचनाओं के माध्यम से आम जनमानस से सीधा संवाद करते प्रतीत होते हैं। गीति- काव्य परंपरा के उन्नायक ‘कुमुद’ जी को श्रंगारिक गीतों का सम्राट कहा जाना अतिशयोक्ति नहीं होगी उनके रस- सिद्ध गीत गति, यति, लय, छंद आदि से परिपूर्ण हैं। ‘कुमुद’ जी साहित्यकार के साथ ही एक अच्छे इंसान थे। सीधे व सच्चे मन के थे। उनकी कथनी व करनी एक समान थी। समाजसेवी के रूप में दूसरों की मदद को सदैव तत्पर रहते थे । ‘कुमुद’ जी सदैव आत्मा की आवाज को ही अपना संरक्षक मानते रहे और आत्मबल को ही श्रेष्ठ समझते रहे । उनका जीवन प्रतिपल सिद्धांतों पर ही आधारित रहा। किसी भी प्रकार के नशीले पदार्थों का उन्होंने कभी सेवन नहीं किया तथा पैदल चलने की आदत थी। वास्तव में वह सादा जीवन उच्च विचार उक्ति को पूर्णत: चरितार्थ करते रहे । कभी भी हार न मानने वाली प्रवृत्ति और अंतर की घुटन को कविता का रूप देते हुए ‘कुमुद’ जी काव्य साधना एवं प्रकाशन की सभी कठिनाइयों को झेलते हुए माँ वाणी के प्रखरश्चेतक के रूप में कर्मरत रहे। उनके पुत्र उपमेंद्र सक्सेना एडवोकेट के अनुसार ‘कुमुद’ जी का जन्म उत्तर प्रदेश के बरेली नगर के मोहल्ला कुँवरपुर में 6 जून सन् 1939 को एक संभ्रांत कायस्थ परिवार में पिता मुकुंदी लाल सक्सेना तथा माता श्रीमती रूप रानी सक्सेना के यहाँ हुआ।

‘कुमुद’ जी का जन्म साहित्य- सेवा के लिए ही हुआ था। लगभग 13 वर्ष की अवस्था में अपने पिता के निधन के बाद से ‘कुमुद’ जी द्वारा काव्य सृजन की जो श्रंखला आरंभ हुई वह फिर कभी नहीं रुकी और अनवरत चलती रही। बाल्य काल से ही अपनी सरलता, सहजता एवं कर्तव्य निष्ठा की सुरभि से जन-जन के मन को सुरभित करते रहे। ‘कुमुद’ जी के व्यक्तित्व की सहजता व सरलता उनके गीतों में परिलक्षित है परिवार में बहुत गरीबी थी, बावजूद इसके उन्होंने अपनी रचनाधर्मिता से कभी मुख न मोड़ा। छात्र- छात्राओं को पढ़ाकर अपनी व माता की जीविका चलाई। सन् 1957 में मैट्रिक की परीक्षा पास की, 14 जून सन् 1959 ई० को ‘कुमुद’ जी का विवाह सुलीला रानी सक्सेना के साथ हुआ जिनके पिता मंगलसेन जौहरी प्रतिष्ठित अध्यापक थे।

ज्ञान स्वरूप ‘कुमुद’ मिशनरी भावना के सच्चे समर्थक रहे। अपने उद्देश्य के अनुरूप ही मूक पशुओं की सेवा करने हेतु राजकीय पशु औषधिक का प्रशिक्षण लखनऊ से प्राप्त किया। तदुपरांत 27 जून सन् 1959 को राजकीय पशु चिकित्सालय काँट, शाहजहाँपुर में पशु औषधिक के पद पर नियुक्त हुए और बरेली कैंट में कार्यरत रहते हुए 30 जून 1997 को लंबी सेवा उपरांत ससम्मान चीफ वेटेनरी फार्मासिस्ट के पद से अवकाश प्राप्त किया।

‘कुमुद’ जी तत्कालीन समाज की सभी समस्याओं उसके सभी पक्षों को छूने वाले समर्थ रचनाकार कहलाते हैं। गीत, कविता मुक्तक व दोहे आदि के साथ ही गद्य विधा के अंतर्गत कहानी, लेख संस्मरण व निबंध इत्यादि लिखे हैं। ‘न्याय की आवाज’,’स्वाभिमान’, ‘अपराधी’, ‘धूल के बादल’, ‘गजेस्ट्रेट ऑफिसर’, ‘स्मृति चिन्ह’ आदि उनकी कहानियाँ हैं। आपकी कुछ कहानियाँ संस्कृत भाषा में अनुवादित भी हुई हैं ,जो स्तरीय पत्र- पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई हैं। राजस्थान राज्य सरकार (शिक्षा विभाग) द्वारा समस्त उच्चतर माध्यमिक विद्यालयों हेतु स्वीकृत ‘संघ शक्ति’ में भी ‘कुमुद’ जी की कविताओं को स्थान मिला है। पटना (बिहार) से निकलने वाली राष्ट्रीय पत्रिका ‘संदेश’ के ‘कुमुद’ जी मुख्य लेखक एवं सहयोगी रहे, उच्च मांटेसरी स्कूलों में पढ़ाई जाने वाली हिंदी पाठ्यपुस्तक ‘भाषा मंजरी’ एवं ‘स्वर संगम’ के पाठ के लेखक ‘कुमुद’ जी की भारत के सभी प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं आदि में रचनाएँ प्रकाशित हो चुकी हैं रोहिलखंड के गीतकारों के गीतों पर हुए शोध में साहित्यकार डॉ महेश मधुकर जी द्वारा ‘कुमुद’ जी के गीतों पर शोध कार्य हुआ है। काव्य- शिल्प सौंदर्य से सराबोर ‘कुमुद’ जी की रचनाएँ गीत परंपरा में मील का पत्थर हैं। उनके गीतों की सरलता, सहजता एवं यथार्थवाद प्रशंसा के योग्य हैं तथा उनके व्यक्तित्व के अनुरूप सरल भाषा में हैं।

‘कुमुद’ जी कल्याण कुंज भाग (1) कल्याण कुंज भाग (2), कल्याण काव्य कलश, कल्याण काव्य कुसुमांजलि, कल्याण काव्य माला, एवं निजी काव्य संकलन कुमुद काव्य कलाधर प्रकाशित कर चुके हैं ‘कुमुद’ के प्रेम गीत श्री चेतन दुबे अनिल के संपादन में प्रकाशित हो चुका है। ‘कुमुद’ जी ने इसके अतिरिक्त कई पत्रिकाओं का सहसंपादन भी किया, लेकिन आर्थिक स्थिति ठीक न होने के कारण कहानी संग्रह प्रकाशित नहीं हो सका। आपको देशभर में अनेक साहित्यिक एवं सामाजिक संस्थाओं द्वारा विभिन्न उपाधियों से अलंकृत करते हुए अभिनंदित व सम्मानित किया जा चुका है। कुमुद जी को पानीपत से आचार्य की मानद् उपाधि भी प्राप्त हुई। आकाशवाणी, बरेली एवं रामपुर से नियमित प्रसारण के साथ ही बरेली दूरदर्शन पर काव्य पाठ प्रसारित हुआ है।

सन् 1982 को ‘कुमुद’ जी द्वारा सामाजिक संस्था- सर्वजन हितकारी संघ एवं बरेली के नवोदित कवियों के उत्साहवर्धन हेतु साहित्यिक संस्था -कवि गोष्ठी आयोजन समिति का गठन किया गया। जिसके वह संस्थापक/ सचिव रहे। समिति द्वारा प्रत्येक माह के द्वितीय रविवार को काव्य गोष्ठी का क्रम चलता था जो आज भी अविरल चल रहा है।

मानव सेवा क्लब के अध्यक्ष सुरेन्द्र बीनू सिन्हा के अनुसार वह मानव सेवा क्लब के कार्यक्रम में नियमित भाग लेते थे। ‘कुमुद’ जी ने काव्य संकलनों का प्रकाशन कर नए कवियों को लिखने और सीखने को प्रोत्साहित किया जिसमें बाहर के एवं स्थानीय कवियों का पूरा सहयोग रहा। कवि एवम पूर्व विधायक रहे रमेश विकट जी के अनुसार वैसे तो बरेली जनपद में अनेक दिग्गज काव्यकार रहे पर ‘कुमुद’ जी श्रेष्ठ काव्यकार के साथ ही निश्चल समर्पित भाव से हिंदी साहित्य की सेवा करते रहे और सभी के हृदय में उत्कृष्ट कार्यों से विशिष्ट स्थान बना लिया। उनके द्वारा रचित रस, अलंकार एवं छंदों को हाईस्कूल व इंटरमीडिएट के विद्यार्थी अपने पाठ्यक्रम में याद करते हैं ऐसा उन्हें बताया गया। स्मरण हो कि 22 दिसंबर 2015 को ‘कुमुद’ हिंदी जगत के आकाश में एक ऐसे दैदीप्यमान सितारा हमेशा के लिए हमसे दूर हो गया।

कवि रणधीर प्रसाद गौड़ के अनुसार अपने कृतित्व एवं व्यक्तित्व में एकरूपता रखने वाले ‘कुमुद’ जी अपने साहित्य के साथ-साथ नगर के कवियों को एकजुट रखने के लिए सदैव स्मरणीय रहेंगे। ‘कुमुद’ जी की इन पंक्तियों को उन्हीं के शब्दों में प्रस्तुत कर विनम्र श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए शत् शत् नमन”जीवन तो मेरा दास हुआ ,मैं जीवन का दास नहीं ।मैंने तो चलना सीखा है, रुकने का अभ्यास नहीं।”

नोट: *कलम बरेली की* से साभार

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