बरेली के इतिहास को संजोने वाली पत्रिका “कलम बरेली की”

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समीक्षक रणजीत पांचाले का फाइल फोटो

बरेली: बरेली जनपद के निर्भय सक्सेना वरिष्ठ पत्रकार हैं। वे अपनी चार दशकों की पत्रकारिता के दौरान जनपद के विभिन्न पक्षों से सुपरिचित हो गए हैं। उनके पास चित्रों का बहुत अच्छा संग्रह है। इनमें से कुछ चित्र अब ऐतिहासिक महत्त्व के हैं, तो शेष अगले दो-तीन दशकों में ही इतिहास की दृष्टि से बहुत महत्त्वपूर्ण हो जाएंगे। उनके साथी छायाकारों के पास भी काफी चित्र हैं। इन चित्रों को संरक्षित किए जाने की आवश्यकता है। निर्भय सक्सेना ने जुलाई 2021 में ‘कलम बरेली की’ पत्रिका का प्रकाशन आरंभ किया था। इसके अब तक चार अंक आ चुके हैं जिनमें प्रकाशित लेखों को टुकड़ों-टुकड़ों में लिखा गया बरेली का इतिहास कहा जा सकता है। उनमें बरेली से प्रकाशित समाचार-पत्रों तथा पत्रकारिता क्षेत्र की विभूतियों के बारे में उपयोगी जानकारी है। पत्रिका के अंकों में बरेली के रंगकर्म, साहित्य, इतिहास, कला, खेल, राजनीति, सांस्कृतिक पक्षों-यथा यहां की रामलीलाओं, धार्मिक स्थलों, टीवी एवं सिने दुनिया में बरेली के कलाकारों के योगदान के अलावा, जनपद की शिक्षण संस्थाओं, सामाजिक संस्थाओं, उद्योग धंधों आदि पर बहुत महत्त्वपूर्ण लेख प्रकाशित हुए हैं।

कलम बरेली की के चौथे संस्करण के लेखक वरिष्ठ पत्रकार निर्भय सक्सेना का फाइल फोटो

कुछ समय पूर्व ही ‘कलम बरेली की’ का चौथा अंक प्रकाशित हुआ है। पत्रिका में शुरू में दिए अपने लेखों में निर्भय सक्सेना ने बरेली जनपद की पांचों तहसीलों के ऐतिहासिक महत्त्व के बारे में जानकारियां दी हैं। जनपद के इतिहास पर तुलई सिंह गंगवार का लंबा लेख है। बरेली को ‘नाथ नगरी’ भी कहा जाता है। यहां के प्रसिद्ध नाथ मंदिरों पर डॉ. राजेश शर्मा के आलेख में इन मंदिरों से जुड़ी किवदंतियों के साथ इनके इतिहास और इनकी विशेषताओं का विस्तार से उल्लेख किया गया है। बरेली नगर में 82 वर्षों से निरंतर चल रही सुभाष नगर की रामलीला पर अनुराग उपाध्याय का लेख दिलचस्प है। इसमें उन्होंने बताया है कि शुरुआती दौर में आपसी सहयोग से लोग पूरी रामलीला का मंचन किया करते थे। तब घरों से कई सारे तख़्त, चादरें और रोशनी के लिए लालटेनें एकत्र कर मंच तैयार किया जाता था। यहां यह भी उल्लेखनीय है कि बरेली शहर में ही देश की सबसे पुरानी रामलीलाओं में से एक 456 वर्ष पुरानी चौधरी तालाब की रामलीला है। नगर में वमनपुरी की रामलीला, जो कि होली के आस-पास खेली जाती है, 163 वर्ष पुरानी है। एशिया का पहला महिला अस्पताल ‘क्लारा स्वैन हॉस्पिटल’ सन 1870 में बरेली नगर में स्थापित करने वाली अमेरिकन मेडिकल मिशनरी डॉ. क्लारा स्वैन पर अपने लेख में रणजीत पांचाले ने बताया है कि क्लारा भारत में आधुनिक महिला चिकित्सा आंदोलन की प्रणेता थीं। उन्होंने बरेली में आधुनिक चिकित्सा के पहले महिला अस्पताल की स्थापना के अलावा यहां महिलाओं का भारत का पहला नर्सिंग स्कूल भी स्थापित करके एक नया इतिहास रचा था।


सन 1837 में स्थापित ‘बरेली कॉलेज’ भी नगर में अपना ऐतिहासिक महत्त्व रखता है। इसके विद्वान शिक्षकों पर डॉ. एन. एल. शर्मा ने लेख लिखा है जो स्वयं यहां वाणिज्य संकाय में प्राध्यापक थे और कुछ समय तक कॉलेज के कार्यवाहक प्राचार्य भी रहे थे। डॉ. शर्मा के अनुसार बरेली कॉलेज में लंबे समय तक अंग्रेज प्रिंसिपल नियुक्त हुए थे और यहां के पहले प्रिंसिपल वेसन ट्रीगियर थे। हिंदी विभाग में प्रो. भोलानाथ शर्मा विद्वता, विनम्रता और सरलता के पर्याय थे। वे कई भाषाओं में निष्णात थे। हिंदी विभाग में ही रहे डॉ. भगवान शरण भारद्वाज भी भाषाविद थे। हिंदी के अलावा संस्कृत और अंग्रेज़ी पर उनका विशेष अधिकार था। डॉ. वीरेन डंगवाल देश के प्रसिद्ध साहित्यकार और पत्रकार थे। उर्दू विभाग के अध्यक्ष और कला संकाय के डीन रहे प्रो. वसीम बरेलवी अंतरराष्ट्रीय स्तर के शायर हैं। कॉलेज के विभिन्न विभागों के अधिकांश हस्ताक्षरों के बारे में डॉ. एन. एल. शर्मा ने अपने अनुभवों के आधार पर लिखा है। बरेली कॉलेज के शिक्षकों के बारे में ऐसा लेख पहले शायद ही कभी लिखा गया हो।
बरेली की विभूति, महान नाटककार तथा ‘राधेश्याम रामायण’ के रचयिता महाकवि पं. राधेश्याम कथावाचक पर सुप्रसिद्ध नवगीतकार रमेश गौतम का लेख ‘पंडित राधेश्याम कथावाचक के नाटकों में सामाजिक चेतना’ सारगर्भित है। इसमें उन्होंने लिखा है कि राधेश्याम के नाटक ‘वीर अभिमन्यु’ में भारत की परतंत्रता के दौर में अभिमन्यु का चरित्र एक स्वतंत्रता सेनानी के रूप में उभरकर सामने आता है। ‘वीर अभिमन्यु’ नाटक में नटी आलस्य की निंदा करते हुए कहती है : “यह आलस बड़ा पिशाच है जो धीरे-धीरे भारतवर्ष पर अपना सिक्का जमाता जा रहा है, इस कर्मभूमि को कायर बनाता जा रहा है।” इसी प्रकार कथावाचक जी के नाटकों ‘श्रवण कुमार’, ‘परमभक्त प्रह्लाद’ आदि के प्रसंगों में रमेश गौतम ने सामाजिक चेतना के साक्ष्यों की खोज की है। उत्कृष्ट साहित्य प्रकाशन के लिए हिंदी जगत में प्रसिद्ध पं. राधेश्याम कथावाचक की ‘राधेश्याम प्रेस’ पर हरिशंकर शर्मा का लेख अब इतिहास बन चुकी इस प्रेस के बारे में विस्तृत जानकारी देता है। यहां से कथावाचक जी और अन्य लेखकों के साहित्य के प्रकाशन के अलावा, 1922 से 1929 तक ‘भ्रमर’ पत्रिका का भी प्रकाशन हुआ था। सन 1929 में जब यह पत्रिका बंद हुई थी तब इसकी ग्राहक संख्या 25000 थी, जो उस समय बहुत बड़ी बात थी।
प्रामाणिक इतिहास लेखन की दृष्टि से पत्रिका में दिए गए बरेली के इतिहास संबंधी अधिकांश लेखों को प्रमाणिकता की कसौटी पर कस पाना कठिन है, विशेषकर उन लेखों को जिनमें जनपद के प्राचीन इतिहास का उल्लेख है , क्योंकि इन लेखों में जानकारी के स्रोतों का उल्लेख नहीं है। फिर भी उनके अभाव में इन लेखों में दी गईं सभी जानकारियों को खारिज भी नहीं किया जा सकता है और वे भविष्य में जनपद के इतिहास पर प्रामाणिक ढंग से खोज का मार्ग प्रशस्त करती हैं।


सुप्रसिद्ध पर्यावरणविद् डॉ. आलोक खरे के लेख ‘बरेली की जैव विविधता को संरक्षण की ज़रूरत’ के अलावा पत्रिका में कई अन्य लेख भी पठनीय हैं जिनमें ‘विलक्षण व्यक्तित्व के धनी आचार्य देवेन्द्र देव’ तथा ‘इस्मत चुगताई बरेली के इस्लामियां गर्ल्स स्कूल में रही थीं प्रिंसिपल’ विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। पत्रिका में वर्तमान समय के बरेली के प्रसिद्ध व्यक्तियों- व्यवसायी अनिल सिन्हा, रोटेरियन राजेन विद्यार्थी, साहित्यकार इंद्रदेव त्रिवेदी तथा राजनीतिज्ञ प्रेम प्रकाश अग्रवाल पर स्वतंत्र लेख दिए गए हैं जो उनसे संबंधित क्षेत्र में उनके योगदान से परिचित कराते हैं।

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