ऐसे थे अमर बलिदानी वीरेन्द्रनाथ दत्त: “मैं मातृभूमि की सेवा में फाँसी पर चढ़ रहा हूँ। यह समय आनन्द का है, शोक का नहीं”

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महावीर सिंघल, इंडिया।क्रान्तिकारी वीरेन्द्रनाथ दत्त गुप्त का जन्म 20 जून, 1889 को बालीगाँव हाट (साहीगंज, बंगाल) में हुआ था। उनके पिता श्री उमाचरण का देहान्त तब ही हो गया था, जब वे केवल नौ वर्ष के थे। माता वसन्त कुमारी की गोद में पले वीरेन्द्र ने बालीगाँव हाट, साहीगंज और कोलकाता में शिक्षा पायी। स्वास्थ्य ठीक न होने के कारण वे कक्षा दस की परीक्षा उत्तीर्ण नहीं कर पाये।

उन दिनों विप्लवी दल ‘सुहृद समिति’ के कार्यकर्ता सतीश चन्द्र सेन राधानाथ हाईस्कूल में पढ़ाते थे। उन्होंने वीरेन्द्र को समिति में भर्ती कर प्रशिक्षण देना प्रारम्भ किया। वे उसी गाँव में तरुणों को व्यायाम के साथ ही लाठी व छुरेबाजी का अभ्यास कराते थे।

इससे वहाँ के मुस्लिम बहुत नाराज होते थे। उन्होंने कई बार उस व्यायामशाला में उपद्रव करने का प्रयास किया; पर वीरेन्द्र तथा उसके साथियों की उग्र तैयारी देखकर वे पीछे हट गये। यद्यपि ‘आत्मोन्नति समिति’ के चाँदपुर, हमालपुर आदि स्थानों पर चल रहे व्यायाम केन्द्रों पर वे हमला करने में सफल रहे। उन दिनों इसी प्रकार के नामों से क्रान्तिकारी युवक एकत्र होते थे।

उन दिनों पुलिस उपाधीक्षक मौलवी शम्सुल आलम अलीपुर बम काण्ड की जाँच कर रहा था। वह अंग्रेज भक्त तथा लीगी मानसिकता का व्यक्ति था। उसकी इच्छा थी कि अधिकाधिक क्रान्तिकारियों को फाँसी के फन्दे तक पहुँचाया जाये। हावड़ा षड्यन्त्र केस में भी इसके प्रयास से अनेक क्रान्तिकारियों को लम्बी सजा हुई थी।

इसने अलीपुर काण्ड में 40 हिन्दू युवकों को आरोपी बनाकर 206 झूठे गवाह न्यायालय में खड़े किये। इस पर ‘विवेकानन्द समिति’ के नाम से काम कर रहे विप्लवियों ने शम्सुल आलम को उसके पापों का दण्ड देकर जहन्नुम भेजने का निर्णय ले लिया।

यह काम सतीश सरकार, यतीश मजूमदार और वीरेन्द्रनाथ दत्त को सौंपा गया। सुरेश मजूमदार ने वीरेन्द्र को रिवाल्वर दिया और वे सब 24 जनवरी, 1910 को न्यायालय पहुँच गये। उस दिन वहाँ अलीपुर बम काण्ड की सुनवाई शुरू हुई।

मौलवी शम्सुल आलम बड़ी तत्परता से अपने काम में लगा था। क्रान्तिकारी भी ताक में थे। अचानक शम्सुल किसी काम से न्यायालय से बाहर आया, बस वीरेन्द्र दत्त ने निशाना साधकर गोली दाग दी। शम्सुल के मुँह से ‘या खुदा’ निकला और उसने वहीं दम तोड़ दिया।

सतीश मजूमदार तो वहाँ से फरार होने में सफल हो गये; पर वीरेन्द्र ने बचने का कोई विशेष प्रयास नहीं किया। अतः वे पुलिस की शिकंजे में फँस गये। इसके कुछ समय बाद इस काण्ड से जुड़े कुछ अन्य क्रान्तिकारी भी पुलिस की गिरफ्त में आ गये; पर शम्सुल के वध से इतना लाभ अवश्य हुआ कि गवाहों के मन में भय बैठ गया। पुलिस केवल छह युवकों पर ही आरोप सिद्ध कर सकी। इसका श्रेय निःसन्देह वीरेन्द्र दत्त को ही है।

पुलिस ने वीरेन्द्र पर अनेक अत्याचार किये; पर वे उससे कोई रहस्य नहीं उगलवा सके। अन्ततः न्यायाधीश लारेन्स जेकिन्स ने वीरेन्द्र को फाँसी की सजा सुना दी। फाँसी से एक दिन पूर्व वीरेन्द्र के बड़े भाई धीरेन्द्र दत्त मिलने आये, तो वीरेन्द्र ने कहा, ‘‘दादा, यह गर्व करने की बात है कि कल मैं मातृभूमि की सेवा में फाँसी पर चढ़ रहा हूँ। यह समय आनन्द का है, शोक का नहीं।’’

21 फरवरी, 1910 को वन्दे मातरम् का उद्घोष करते हुए वीर वीरेन्द्रनाथ दत्त फाँसी पर झूल गये।

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