गरीबों और दलितों के बीच अज्ञानता, अंधविश्वास और अस्वच्छता के उन्मूलन के लिए काम किया Sant Gadge Maharaj ने
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लव इंडिया, मुरादाबाद। धोबी समाज के संत एवं महापुरुष बाबा संत गाडगे महाराज का 149 वा जन्म दिवस समारोह कार्यक्रम सिविल लाइंस स्थित अंबेडकर पार्क मनाया गया।
जिला धोबी महासभा बाबा संत गाडगे महाराज के कार्यक्रम में मौजूद लामाचन्द्र अध्यक्षता की। संचालन सुरेश चन्द दिवाकर ने की। कहा कि भगवान मन्दिरों में नहीं रहता बल्कि घरों में रहता है। तीर्थ यात्रा करने पर पैसा मत खर्च करो। शराब का सेवन न स्वयं करो न ही दूसरी को कराओ। किसी के साथ भी गलत व्यवहार मत करो। बच्चों को शिक्षित बनाएं। विवाह में दहेज लेन-देन बन्द करो ।
जाति केवल दो हैं स्त्री- पुरुष। पशु हत्या मत करो। चमत्कार पर विश्वास मत करो। झूठे पखंडों में न पड़ों।
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इस मौके पर वक्तों ने कहा कि संत गाडगे महाराज का पूरा नाम “देबूजी जिंगराजी जनोरकर” था। उनके पिता का नाम – जिंगराजी रानोजी जानोरकर था, जबकि उनकी माता का नाम – सखुबाई जिंगराजी जानोरकर था। गाडगे महाराज वैज्ञानिक दृष्टिकोण वाले समाज सुधारक थे। उन्होंने अपना पूरा जीवन दलितों और दलितों की सेवा में लगा दिया। उनका कीर्तन लोकज्ञान का अंग था। वे अपने कीर्तनों के माध्यम से समाज के पाखंड और परंपरा की आलोचना करते थे। गाडगेबाबा ने समाज को शिक्षा के महत्व के बारे में समझाते हुए स्वच्छता और चारित्रिक शिक्षा दी। गाडगे महाराज एक समाज सुधारक थे जिन्होंने गरीबों और दलितों के बीच अज्ञानता, अंधविश्वास और अस्वच्छता के उन्मूलन के लिए काम किया। तीर्थ धोंडापाणि देव रोकड़ा सज्जानी |” गाडगेबाबा कहते हैं, एक महान संत जो गरीबों, कमजोरों, अनाथों, विकलांगों की सेवा करते हैं। “मंदिर में मत जाओ, मूर्तियों की पूजा मत करो, साहूकारों से पैसे उधार मत लो, मत बनो देहाती, पोथी-पुराण, मंत्र-तंत्र, देवदेवस्की, चमत्कारों में विश्वास नहीं करते।
उन्होंने जीवन भर लोगों को सिखाया। इस संत ने, जिन्होंने मनुष्य में भगवान की तलाश की, धर्मशालाओं, अनाथालयों, आश्रमों और अनाथों के लिए विद्यालयों की शुरुआत विभिन्न स्थानों पर की। महाराष्ट्र। रंजले-गंजले, दीन- कमजोर, अपंग और अनाथ उनके देवता थे। गाडगेबाबा इन देवताओं में सबसे लोकप्रिय थे। उन्होंने अपने सिर पर जिन्जा पहना था, खपरा के टुकड़े से बनी टोपी, एक कान में खोपड़ी, दूसरे कान में टूटी चूड़ी का शीशा, एक हाथ में झाड़ू, दूसरे हाथ में घड़ा।
उन्होंने अपना पूरा जीवन समाज में व्याप्त अज्ञानता, अंधविश्वास, भोली-भाली मान्यताओं, अवांछित रीति-रिवाजों और परंपराओं को दूर करने के लिए समर्पित कर दिया। इसके लिए उन्होंने कीर्तन का मार्ग अपनाया। अपने कीर्तन में वे श्रोताओं को उनके अज्ञान, दोषों और दोषों से अवगत कराने के लिए विभिन्न प्रश्न पूछते थे। उनके उपदेश भी सरल और सहज होते थे। अपने कीर्तनों में वे कहा करते थे कि चोरी मत करो, साहूकारों से कर्ज मत लो, व्यसनों में लिप्त मत हो, भगवान और धर्म के नाम पर जानवरों को मत मारो, जातिगत भेदभाव और छुआछूत का पालन मत करो। उन्होंने आम लोगों के मन में यह बात बैठाने की कोशिश की कि भगवान पत्थर में नहीं बल्कि इंसानों में हैं। वे संत तुकाराम महाराज को अपना गुरु मानते थे।
उन्होंने हमेशा कहा कि ‘मैं किसी का गुरु नहीं हूं, मेरा कोई शिष्य नहीं है’। अपने विचारों को सरल और भोले-भाले लोगों तक पहुँचाने के लिए वे ग्रामीण भाषा (मुख्य रूप से वरहाड़ी बोली) का प्रयोग करते थे। गाडगे बाबा ने भी समय-समय पर संत तुकाराम के सटीक अभंगों का भरपूर उपयोग किया। गाडगे बाबा भोले-भाले से लेकर नास्तिक तक सभी उम्र के लोगों को आसानी से अपने कीर्तन में शामिल कर लेते हैं और उन्हें अपने दर्शन का विश्वास दिलाते हैं।
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बाबा के जीवनीकार प्रबोधंकर ठाकरे ने कहा था कि उनके कीर्तन का लघुचित्र बनाना मेरी शक्ति से परे है। नहीं छोड़ा अगर कोई मुसीबत में था तो उसकी मदद के लिए दौड़ना, उसकी मदद करना और बिना किसी परिणाम की उम्मीद किए अपने रास्ते पर जाना उसका पैटर्न था। वह हमेशा अपने साथ एक कौवा रखता था। वह फटे-पुराने कपड़े पहने था और हाथ में टूटी बंदूक थी। इसीलिए लोग उन्हें ‘गाडगे बाबा’ कहने लगे। वह जिस गाँव में जाता था, झाडू-पोंछा करता था। सार्वजनिक स्वच्छता के सिद्धांतों को मन में बिठाने और समाज में अंधविश्वास को खत्म करने के लिए वे खुद भी लगातार सक्रिय रहे और भरसक प्रयास किया।
इस मौके पर करन सिंह, दिनकर, रजनी, रामगोपाल चौधरी, मुन्ना लाल दिवाकर, राम सिंह आर्य, डॉ.देवेंद्र कुमार दिवाकर, महासचिव करन सिंह आदि मौजूद रहे।