क्या आप जानते हैं देश में ओबीसी आरक्षण की शुरुआत किसने की…?

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चौ.लौटनराम निषाद

ओबीसी आरक्षण की शुरुआत…क्या आप जानते हैं ओबीसी आरक्षण की शुरुआत किसने की? बता दें कि भारत में आरक्षण की नींव आजादी से पहले ही समाज सुधारक ज्योतिराव फुले ने रखी थी, लेकिन सरकारी नौकरी में अनुसूचित जातियों के लिए आरक्षण की मांग भीमराव अम्बेडकर ने की थी। डॉ. भीमराव अंबेडकर आजादी से पूर्व कभी भी पिछड़ी जातियों की बात नहीं किये। वे सिर्फ और सिर्फ अछूतों व शेड्यूल्ड कास्ट की ही बात करते थे।

ब्रिटिश हुकूमत ने भारत सरकार अधिनियम-1908 के द्वारा सभी शूद्र वर्ग की जातियों को डिप्रेस्ड क्लास के नाम से आरक्षण की व्यवस्था किये थे।जो 1932 तक मिलता रहा,परन्तु गोलमेज सम्मेलन 1932 के बाद किसी न किसी रूप में आज की हिन्दू पिछड़ी जातियों के साथ धोखाधड़ी शुरू हो गयी।

.डिप्रेस्ड क्लास का टचेबल व अन टचेबल में बंटवारा कर सछूत पिछड़ों को 1932 के बाद आरक्षण से वंचित करा दिया गया, दूसरी ओर भारत सरकार अधिनियम-1935 व 1937 द्वारा क्रमशः शिक्षा व नौकरियों एवं राजनीति में आनुपातिक आरक्षण अछूतों को अम्बेडकर जी द्वारा दिला दिया गया।आगड अम्बेडकर चाहे होते तो सभी शूद्रों को 1935 व 1937 में ही आरक्षण मिल गया होता।वास्तव में सम्पूर्ण बहुजन का कोई हिमायती दलित वर्ग का अभी तक हुआ है तो सिर्फ मान्यवर कांशीराम जी के अलावा कोई नहीं हुआ। 15 व 85 की बात मान्यवर कांशीराम जी ने ही धरातल पर उतारने का अथक प्रयास किये। हम आपको भारत में आरक्षण के इतिहास के बारे में बताने जा रहे हैं, साथ ही सिलसिलेवार तरीके से यह भी बताएंगे कि भारत में ओबीसी आरक्षण की शुरुआत किसने और क्यों की थी…?

भारत में ओबीसी आरक्षण

अगर भारत में आरक्षण के इतिहास की बात करें तो इसके लिए हमें कई सालों पीछे जाना होगा। दरअसल, भारत में आजादी से पहले ही नौकरियों और शिक्षा में पिछड़ी जातियों के लिए आरक्षण देने की शुरुआत हो चुकी थी। इसके लिए विभिन्न राज्यों में विशेष आरक्षण के लिए समय-समय पर कई आंदोलन हुए हैं। जिनमें राजस्थान का गुर्जर आंदोलन, हरियाणा का जाट आंदोलन,आन्ध्र प्रदेश का कम्मा व कापू आंदोलन,महाराष्ट्र का मराठा आंदोलन और गुजरात का पाटीदार (पटेल) आंदोलन प्रमुख हैं।

क्या है आरक्षण का अर्थ

आरक्षण का अर्थ अपना जगह सुरक्षित करना है। यात्रा करने के लिए रेल का डिब्बा हो, किसी भी स्तर पर चुनाव लड़ना हो या फिर किसी सरकारी विभाग में नौकरी पाना हो। हर किसी की इच्छा होती है उस स्थान पर शख्स की जगह सुरक्षित हो।

आखिर क्यों दिया जाता है आरक्षण

भारत में सरकारी सेवाओं और संस्थानों में पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं रखने वाले पिछड़े समुदायों तथा अनुसूचित जातियों और जनजातियों के सामाजिक और शैक्षिक पिछड़ेपन को दूर करने के लिए भारत सरकार ने सरकारी तथा सार्वजनिक क्षेत्रों की इकाइयों और धार्मिक/भाषाई अल्पसंख्यक शैक्षिक संस्थानों को छोड़कर सभी सार्वजनिक तथा निजी शैक्षिक संस्थानों में पदों तथा सीटों के प्रतिशत को आरक्षित करने के लिए कोटा प्रणाली लागू की है। भारत के संसद व राज्य विधानसभाओं में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के प्रतिनिधित्व के लिए भी आरक्षण नीति को विस्तारित किया गया है।

भारत में आरक्षण की शुरूआत

क्रांतिसूर्य ज्योतिबा फूले जी की पहल पर आरक्षण की शुरुआत 1882 में हंटर आयोग के गठन के साथ हुई थी| उस दौरान विख्यात समाज सुधारक महात्मा ज्योतिराव फुले ने सभी को नि:शुल्क और अनिवार्य शिक्षा तथा अंग्रेज सरकार की नौकरियों में आनुपातिक आरक्षण/प्रतिनिधित्व की मांग की थी। इसके बाद 1891 के आरंभ में त्रावणकोर के सामंती रियासत में सार्वजनिक सेवा में योग्य मूल निवासियों की अनदेखी और विदेशियों को भर्ती करने के खिलाफ प्रदर्शन किया। इसके साथ ही सरकारी नौकरियों में भारतीयों के लिए आरक्षण की मांग उठाई। ज्योतिबा फूले ने जिस आरक्षण की मांग किया था,वह सिर्फ आज के ओबीसी के लिए ही नहीं था,बल्कि वे सभी जातियाँ जो हिन्दू वर्णव्यवस्था के तहत शूद्र वर्ण में शुमार थीं,उन सभी के लिए किया।

भारत सरकार अधिनियम में आरक्षण का प्रवाधान

26 जुलाई, 1902 में महाराष्ट्र के सामंती रियासत कोल्हापुर में शाहू महाराज द्वारा आरक्षण की शुरूआत की गई। यह अधिसूचना भारत में दलित वर्गों / शूद्रों के कल्याण के लिए आरक्षण उपलब्ध कराने वाला पहला सरकारी आदेश है। वहीं 1908 में अंग्रेजों द्वारा बहुत सारी जातियों और समुदायों के पक्ष में, प्रशासन में जिनका थोड़ा-बहुत हिस्सा था, के लिए भारत सरकार अधिनियम-1908 द्वारा आरक्षण शुरू किया गया। 1908-9 और 1919 में भारत सरकार अधिनियम में आरक्षण का प्रावधान किया गया।ब्रिटिश सरकार ने जिस आरक्षण की शुरुआत किया,वह न तो आज के ओबीसी के लिए ही था और एससी, एसटी के लिए,बल्कि सभी शूद्र जातियों के लिए था,जिसको डिप्रेस्ड क्लास का नाम दिया गया था।

मद्रास प्रेसीडेंसी का जतिगत सरकारी आज्ञापत्र

1921 में मद्रास प्रेसीडेंसी ने जातिगत सरकारी आज्ञापत्र जारी किया। इस पत्र में गैर-ब्राह्मणों के लिए 44 प्रतिशत, ब्राह्मणों के लिए 16 प्रतिशत, मुसलमानों के लिए 16 प्रतिशत, भारतीय-एंग्लो/ईसाइयों के लिए 16 प्रतिशत और अनुसूचित जातियों के लिए 8 प्रतिशत आरक्षण की व्यवस्था की गई थी। वही 1935 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने प्रस्ताव पास किया, जो पूना समझौता कहलाता है। इस प्रस्ताव में दलित वर्ग(सिर्फ अछूत व बहिष्कृत जातियों ) के लिए अलग निर्वाचन क्षेत्र की मांग की गई थी।

भीमराव अम्बेडकर ने मांगा अनुसूचित जातियों के लिए आरक्ष

साल 1935 के भारत सरकार अधिनियम में आरक्षण का प्रावधान किया गया था।भारत सरकार अधिनियम-1937 में अछूत व जंगली जातियों के अछूत पिछड़ी जाति व आदिम पिछड़ी जाति के लिए समानुपातिक कोटा राजनीति में प्रतिनिधित्व के लिए किया गया। 1942 में बी. आर. अम्बेडकर ने अनुसूचित जातियों की उन्नति के समर्थन के लिए अखिल भारतीय दलित वर्ग महासंघ की स्थापना की। उन्होंने सरकारी सेवाओं और शिक्षा के क्षेत्र में अनुसूचित जातियों के लिए आरक्षण की मांग की। 1946 के कैबिनेट मिशन प्रस्ताव में अन्य कई सिफारिशों के साथ आनुपातिक प्रतिनिधित्व का प्रस्ताव दिया गया था।आजादी के बाद भारत में आरक्षणइन घटनाक्रमों के बाद 15 अगस्त 1947 को देश आजाद हुआ और 26 जनवरी 1950 को भारत में संविधान लागू हो गया।

भारतीय संविधान में सभी नागरिकों के लिए समान अवसर प्रदान करते हुए सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछले वर्गों या अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति की उन्नति के लिए संविधान में विशेष धाराएं रखी गई हैं। इसके अलावा 10 सालों के लिए उनके राजनीतिक प्रतिनिधित्व को सुनिश्चित करने के लिए अनुसूचित जातियों और जनजातियों के लिए अलग से निर्वाचन क्षेत्र आवंटित किए गए थे, जिसे हर दस साल के बाद सांविधानिक संशोधन के जरिए इन्हें बढ़ा दिया जाता है।

क्या अम्बेडकर सभी शूद्र जातियों के प्रतिनिधित्व के हिमायती थे?

आजादी से पहले डॉ. भीमराव अंबेडकर का कोई कार्य व अभियान यह प्रमाणित नहीं करता कि वे सभी शूद्र वर्ण की जातियों के प्रतिनिधित्व के हिमायती थे।यह बात कुछ लोगों को नागवार लग सकती है कि यह अम्बेडकर पर गलत टिप्पणी है।पर,सच्चाई है कि अम्बेडकर सिर्फ शूद्र वर्ण की अछूत जातियों के लिए कार्य करते थे।आजादी से पूर्व उन्होंने कभी दलित व शेड्यूल्ड कास्ट के अलावा सछूत शूद्र व बैकवर्ड कास्ट शब्द का प्रयोग किये हों।अम्बेडकर की चाहे आज की पिछड़ी जातियों के लिए कोई नहीं रही हो या किसी के दबाव में इन्हें अलग कर चल रहे थे।यही कारण था कि 1932 तक सभी शूद्र वर्ण की जातियों को डिप्रेस्ड क्लास के नाम पर आरक्षण मिल रहा था।पर,गोलमेज सम्मेलन 1932 की बाद डिप्रेस्ड क्लास को दो वर्गों-सछूत पिछड़ी जातियों/टचेबल डिप्रेस्ड क्लास व अछूत पिछड़ी जातियों/अन टचेबल डिप्रेस्ड क्लास(अछूत पिछड़ी व आदिम पिछड़ी जाति) में बंटवारा कर दिया गया।यह अम्बेडकर जी द्वारा या उनकी सहमति से ही लिया गया निर्णय था।

भारत सरकार अधिनियम-1935 के द्वारा अछूत व आदिम पिछड़ी जातियों को शिक्षा व नौकरियों में व 1937 द्वारा विधायिका में आरक्षण दे दिया गया।1932 के गोलमेज के बाद हिन्दू पिछड़ी जातियों के साथ धोखाधड़ी शुरू हो गयी।

जब अम्बेडकर को बिना भाषण दिए भागना पड़ा

1930 में लखनऊ के बेगम हज़रत महल पार्क में शूद्र जातियों का सम्मेलन था।जिसमें अम्बेडकर भी आये थे जिन्हें बिना भाषण दिए वापस भागना पड़ा।कारण कि आयोजक मण्डल सभी शूद्र जातियों के आरक्षण व मताधिकार का एक समान वकालत कर रहा था,परन्तु अम्बेडकर जी ने साइमन कमीशन व लोथियन कमेटी/मताधिकार समिति के सामने अपना पक्ष रखे,उसमे सिर्फ और सिर्फ अछूत व आदिम पिछड़ी जातियों के आरक्षण/प्रतिनिधित्व व मताधिकार के पक्ष में अपनी दलील रख रहे थे,जिसका उत्तर भारत के शूद्र नेताओं ने विरोध किया और सम्मेलन में उन्हें बोलने से रोक दिया।

6 दिसम्बर 1928 को साइमन कमीशन के समक्ष शोषितों के हितों के लिए जो गवाही देने गए उसमें बाबू रामचरण लाल निषाद एडवोकेट एमएलसी, बाबू खेमचंद पयरव एमएलसी सभापति-अखिल भारतीय जाटव महासभा,बाबू नानकचन्द धुसिया सभापति आदि हिन्दू सभा उत्तर प्रदेश, मुंशी हरि टम्टा चेयरमैन-कुमायूँ शिल्पकार सभा,भगत मुल्लूराम,बाबू शिवदयाल सिंह चौरसिया एडवोकेट, बाबू रामप्रसाद अहीर प्लीडर अवध कोर्ट,बाबू चेतराम,बाबू राजाराम कहार आदि शामिल थे,जो सभी शूद्रों के समान अधिकार दिए जाने के हिमायती थे।लेकिन अम्बेडकर सिर्फ अछूतों की हिमायती थे।उक्त सभी प्रतिनिधि अम्बेडकर के ही साथ थे,पर अम्बेडकर द्वारा सछूत व अछूत पिछड़ी जातियों में भेदभाव करने के कारण उनके विरोध में खड़े हो गए।

कालेलकर आयोग में आरक्षण की सिफारिश पर फैसला

1953 में सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्ग की स्थिति का मूल्यांकन करने के लिए कालेलकर आयोग का गठन किया गया था। इस आयोग के द्वारा सौंपी गई अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों से संबंधित रिपोर्ट को स्वीकार कर लिया गया, लेकिन अन्य पिछड़ी जाति के लिए की गई सिफारिशों को अस्वीकार कर दिया गया।इसके बाद 1979 में सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्गों की स्थिति का मूल्यांकन करने के लिए मंडल आयोग की स्थापना की गई।

इस आयोग के पास अन्य पिछड़े वर्ग के बारे में कोई सटीक आंकड़ा नहीं था और इस आयोग ने ओबीसी की 52% आबादी का मूल्यांकन करने के लिए 1931 की जनगणना के आंकड़े का इस्तेमाल करते हुए पिछड़े वर्ग के रूप में 1,257 समुदायों का वर्गीकरण किया।

मंडल आयोग की रिपोर्ट का प्रभाव

साल 1980 में मंडल आयोग ने एक रिपोर्ट पेश की और तत्कालीन कोटा में बदलाव करते हुए इसे 22% से बढ़ाकर 49.5% करने की सिफारिश की। फिर 2006 तक पिछड़ी जातियों की सूची में जातियों की संख्या 2297 तक पहुंच गई, जो मंडल आयोग द्वारा तैयार समुदाय सूची में 60% की वृद्धि है। 1990 में मंडल आयोग की सिफारिशों को विश्वनाथ प्रताप सिंह द्वारा सरकारी नौकरियों में लागू किया गया। छात्र संगठनों ने इसके विरोध में राष्ट्रव्यापी प्रदर्शन शुरू किया और दिल्ली विश्वविद्यालय के बछात्र राजीव गोस्वामी ने आत्मदाह की कोशिश की थी।

अगड़ी जातियों में आरक्षण की शुरुआत

. 1991 में नरसिम्हा राव सरकार ने अलग से अगड़ी जातियों में गरीबों के लिए 10% आरक्षण की शुरूआत की।लेकिन उच्चतम न्यायालय ने गैर संविधानिक करार दिया। 1992 में इंदिरा साहनी मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने अन्य पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण को सही ठहराया। सन 1995 में संसद ने 77वें सांविधानिक संशोधन द्वारा अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति की तरक्की के लिए आरक्षण का समर्थन करते हुए अनुच्छेद 16(4)(ए) का गठन किया। बाद में आगे भी 85वें संशोधन द्वारा इसमें पदोन्नति में वरिष्ठता को शामिल किया गया था।

2005 में आरक्षण पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला

12 अगस्त 2005 को उच्चतम न्यायालय ने पी. ए. इनामदार और अन्य बनाम महाराष्ट्र राज्य और अन्य के मामले में 7 जजों द्वारा सर्वसम्मति से फैसला सुनाया। इस फैसले में कहा गया कि राज्य पेशेवर कॉलेजों समेत सहायता प्राप्त कॉलेजों में अपनी आरक्षण नीति को अल्पसंख्यक और गैर-अल्पसंख्यक पर नहीं थोप सकता है। वहीं इसी साल निजी शिक्षण संस्थानों में पिछड़े वर्गों और अनुसूचित जाति तथा जनजाति के लिए आरक्षण को सुनिश्चित करने के लिए 93वां सांविधानिक संशोधन लाया गया। इसने अगस्त 2005 में सर्वोच्च न्यायालय के फैसले को प्रभावी रूप से उलट दिया।

आरक्षण नीति से बाहर क्रीमी लेयर

वर्ष 2006 से केंद्रीय सरकार के शैक्षिक संस्थानों में अन्य पिछड़े वर्गों के लिए मानव संसाधन विकास मंत्री अर्जुन सिंह जी द्वारा आरक्षण शुरू हुआ। 10 अप्रैल 2008 को भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने सरकारी धन से पोषित संस्थानों में 27% ओबीसी कोटा शुरू करने के लिए सरकारी कदम को सही ठहराया। इसके अलावा न्यायालय ने स्पष्ट किया कि ‘क्रीमी लेयर’ को आरक्षण नीति के दायरे से बाहर रखा जाना चाहिए।

देश में क्या आरक्षण की वर्तमान स्थिति

मौजूदा दौर में अगर भारत में आरक्षण की स्थिति की बात करें तो केंद्र सरकार ने उच्च शिक्षा में 49.5% आरक्षण दिया है। वहीं विभिन्न राज्य आरक्षणों में वृद्धि के लिए अनुच्छेद-16(4) के तहत कानून बना सकते हैं। सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के अनुसार 50% से अधिक आरक्षण नहीं दिया जा सकता है, लेकिन राजस्थान,तमिलनाडु ,पुड्डुचेरी, कर्नाटक,तेलंगाना, आंध्रप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, उत्तर प्रदेश, बिहार आदि जैसे राज्यों में 10 प्रतिशत ईडब्ल्यूएस कोटा के बाद 50 प्रतिशत से अधिक कोटा हो गया है।

भारत में आरक्षण के प्रकार

भारत में कई तरह से आरक्षण देने का प्रावधान है। जैसे जाति आधारित आरक्षण, प्रबंधन कोटा, जेंडर पर आधारित आरक्षण, धर्म आधारित आरक्षण, राज्य के स्थायी निवासियों के लिए आरक्षण, पूर्वस्नातक के लिए आरक्षण, आरक्षण के लिए अन्य मानदंड सहित सेवानिवृत सैनिकों के लिए आरक्षण, शहीदों के परिवारों व स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों के आश्रितों को मिलने वाला आरक्षण और अंतर-जातीय विवाह से पैदा हुए बच्चों के लिए आरक्षण शामिल हैं।

ओबीसी आरक्षण पर बवाल

गौरतलब है की सरकार द्वारा लोकसभा व राज्यसभा में संविधान के अनुच्छेद 342-ए और 366(26) सी के संशोधन विधेयक पारित होने से राज्यों के पास ओबीसी सूची में अपनी मर्जी से जातियों को अधिसूचित करने का अधिकार होगा। महाराष्ट्र में मराठा समुदाय, हरियाणा में जाट समुदाय, गुजरात में पटेल समुदाय और कर्नाटक में लिंगायत समुदाय को ओबीसी वर्ग में शामिल होने का मौका मिल सकता है।सब कुछ ठीक है लेकिन सरकार संवैधानिक न्याय के प्राविधान को नजरअंदाज कर पिछडों के अधिकारों का बंदरबाट ही कराने में जुटी हुई है।

क्या किसी दलित नेता ने लड़ी पिछड़ों के आरक्षण की लड़ाई

डॉ. भीमराव अम्बेडकर को बहुजन का मसीहा करार देने पर प्रश्नचिन्ह खड़ा होता है।क्योंकि आजादी के पूर्व कभी अम्बेडकर सम्पूर्ण शूद्र वर्ण के अधिकार के पक्ष में आवाज़ नहीं उठाए।बल्कि सिर्फ अछूत व शेड्यूल्ड कास्ट की ही बात करते थे और इन्हीं को केन्द्रित कर लड़ाई भी लड़े।हाँ,मान्यवर कांशीराम जी पिछडों वंचितों के अधिकार की लड़ाई ईमानदारी से लड़े।देश मे बहुजन के एकमात्र मसीहा मान्यवर कांशीराम जी ही हैं।मण्डल आयोग की सिफारिश लागू कराने में रामबिलास पासवान जी का भी अहम योगदान रहा।

(लेखक सामाजिक न्याय चिन्तक व भारतीय पिछड़ा दलित महासभा के राष्ट्रीय महासचिव है)

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